दुष्यंत की ग़ज़लों में बिम्ब, प्रतीक और मुहावरे
डाॅ भावना
दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल के पहले ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने अपनी समसामयिक ग़ज़लों के माध्यम से जनमानस के भीतर अपनी मजबूत जगह बना ली तथा हिंदी ग़ज़ल में अनंत संभावनाओं का द्वार खोल दिया। निदा फाजली ने बहुत ही सही कहा है कि “दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है ।यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी ,जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमांइदगी करती है ।कहना न होगा कि हिंदी ग़ज़ल के पास बहुत विराट शब्द संपदा, मिथक मुहावरे, बिंब, प्रतीक के साथ अलग-अलग रदीफ और काफिए भी हैं। दुष्यंत कुमार ने पहली बार न केवल हिन्दी ग़ज़ल को जनमानस में स्थापित किया बल्कि पारंपरिक ग़ज़ल की रूढ़ियों से भी मुक्त भी किया ।सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ग़ज़ल -संग्रह ‘साए में धूप’ की समीक्षा की थी। यह समीक्षा दिनमान पत्रिका (नवंबर 1975) में छपी थी। उन्होंने संग्रह की समीक्षा करते हुए लिखा था कि ” दुष्यंत का आज कविता की लड़ाई में ग़ज़ल लेकर खड़े होना और उसकी सामाजिक और राजनीतिक रिश्ते की वैचारिक भूमि बनाना यह दिखाता है कि कवि अपने चुनौती भरे काव्य- कर्म से कतरा रहा है ।वह आसान तरीका चाहता है। वह वाहवाही के फेर में है। एक क्रमबद्ध ठोस चिंतन से मुड़कर टुकड़ों में ऊपरी ढंग से सोचना और उसी में मगन होना चाहता है। आज की कविता की जरूरत ये ग़ज़लें पूरी नहीं करतीं। अपने मिजाज और लहजे से ,अपने व्यंग्य और तरका से ,अपने यथार्थ और अमूर्त से ,जो सूक्तियाँ यह ग़ज़लें फरमाती हैं ,उससे बड़े से बड़ा तनाव चटखारे में ही बदलकर रह जाता है ।” सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की टिप्पणी यह बताने के लिए पर्याप्त है कि दुष्यंत को कविता छोड़कर ग़ज़ल की तरफ मुखातिब होने पर कितनी कटु आलोचना सहनी पड़ी थी! जबकि कोई मंदबुद्धि व्यक्ति भी दुष्यंत की ग़ज़लों की राजनीतिक और सामाजिक चेतना का कायल हुए बिना नहीं रह सकता। जो काम बड़ी-बड़ी कविताएँ कहानियाँ और लेखों ने नहीं किया वो दुष्यंत ने कर दिखाया ।उनके एक-एक शेर किसी भी कार्यक्रम की सफलता की गारंटी आज भी मानी जाती है ।हारे हुए लोगों को हौसला देते दुष्यंत न कभी बेहद बोल्ड हुए न ही उपदेशक की भूमिका में आए। बिल्कुल संयमित तरीके से अपनी बात करते हुए हिंदी ग़ज़लकारों के लिए एक बड़ी लकीर खींच दी।
दुष्यंत के पास भी भाषा की समस्या थी। कुछ लोग हिंदी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों के प्रयोग को गलत ठहराते हैं, तो कुछ लोग हिंदी में अत्यधिक तत्सम शब्दों के प्रयोग से ग़ज़लियत खोने का रोना रोते हैं । नीरज ने ऐसे ही लोगों पर अपनी पुस्तक” नीरज की गीतिका” में बड़ी सटीक टिप्पणी की है। उनका कहना है कि” शताब्दियों से जिन मुहावरों और शब्दों का प्रयोग इस( खिचड़ी) संस्कृति ने किया है, ग़ज़ल उन्हीं में अपने को व्यक्त करती रही है । अपने रोजमर्रा के जीवन में भी हम ज्यादातर उन्हीं शब्दों और मुहावरों का प्रयोग करते हैं। हम बच्चों को हिंदी भी उर्दू के माध्यम से ही पढ़ाते हैं ।प्रभात का अर्थ सुबह संध्या का अर्थ शाम ,लेखनी का अर्थ कलम बतलाते हैं ।कालांतर में उर्दू के ये ही पर्याय मुहावरे बनकर हमारा संस्कार बन जाते हैं। सुबह -शाम मिलकर जो बिम्ब प्रस्तुत करते हैं ,वह प्रभात और संध्या मिलकर नहीं कर पाते।”
मैं नीरज के इस कथन से बिल्कुल सहमत हूँ ।हम हिंदी में एक वाक्य बोलते हैं, उसमें कई शब्द उर्दू और फारसी के भी होते हैं ।यह शब्द हमारे जीवन में इस तरह घुले- मिले हैं कि इन्हें चाह कर भी हम अलग नहीं कर सकते । दुष्यंत ने इसे ही हिंदुस्तानी जुबान माना है। हिंदुस्तानी जुबान न क्लिष्ट हिंदी है ,न क्लिष्ट उर्दू ।यह वह जुबान है ,जिसमें हमारे खेत जोतते हलधर भी बात करते हैं ,तो धान काटती औरतें भी सुन समझ सकती हैं। हिंदी ग़ज़ल के पास जो भाषा का अपना रचाव , प्रतीक और मुहावरे हैं, वे दुष्यंत की कड़ी मेहनत का परिणाम हैं।
दुष्यंत ने अपने संग्रह ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में ये स्वीकार किया है कि ” उर्दू और हिन्दी अपने -अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फर्क कर पाना मुश्किल हो जाता है ।मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि दोनों भाषाओं को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूँ ।इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में कही गयी हैं ,जिसे मैं बोलता हूँ ।”
कहना होगा कि दुष्यंत को कठिनतम भाषा के इस्तेमाल से परहेज है।जब भी कोई सृजन आम जनता के लिए होता है, तो उसकी जुबान भी आम जनता की ही होती है।कठिन भाषा आलोचकों के ध्यानाकर्षण का माध्यम अवश्य हो सकता है।अब मैं उनके एकमात्र प्रकाशित संग्रह ‘साये में धूप’ की ग़ज़लों के माध्यम से उनकी ग़ज़लों में स्थित बिम्ब, प्रतीक और मुहावरे का उल्लेख करना चाहती हूँ।
दुष्यंत की ग़ज़लों में मुहावरे का प्रयोग बहुत ही खूबसूरत एवं मारक ढंग से हुआ है ।’पाँव से पेट ढकने’ का अर्थ संतोष करना होता है। दुष्यंत ने गरीब लोगों को उम्र भर कठिनाइयों को झेलते देखा है। वे लोग शोषण का कभी प्रतिकार भी नहीं कर सकते।ऐसी भोली- भाली जनता के लिए बड़े व्यंगात्मक लहजे से दुष्यंत ने बड़ी बात कह दी है। आज जो लोग हाशिए पर हैं, वह यथास्थितिवाद में रहना ही पसंद करते हैं, आवाज उठाना उनका स्वभाव ही नहीं है। सत्ता को अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए बेजुबान और गूंगे लोग ही चाहिए।शेर देखें –
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए
हम जब किसी का इंतज़ार कर रहे होते हैं ,तो कोई- न – कोई व्यवधान अवश्य आ जाता है। प्रेम के रास्ते पर चलने वाला हर कदम दुनिया की नजर में अपराध ही तो है। अतः दुनिया स्वभाविक रूप से दीवार बनकर खड़ी हो जाती है।’ बिल्ली का रास्ता काटना’ मुहावरे और लोकोक्ति के रूप में आम जनमानस में न जाने कितनी सदियों से व्याप्त है। दुष्यंत ने इस लोकोक्ति को किस तरह से शेर में ढाला है। जरा देखें-
रास्ता काट कर गई बिल्ली
प्यार से रास्ता अगर देखा
‘छलाँग मारना’ भी एक मुहावरा है ।छलाँग मारने का अर्थ होता है आगे निकल जाना।दुष्यंत ने बच्चों के माध्यम से अपरिपक्व लोगों के आगे निकल जाने एवं परिपक्व को पीछे छूट जाने की कशमकश को बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में कहा है ।शेर देखें –
बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गए,
रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया।
दुष्यंत की ग़ज़लों में मुहावरे के साथ-साथ खूबसूरत प्रतीक भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। वे जब गुलमोहर शब्द का प्रयोग करते हैं, तो आँखों के सामने हँसता- मुस्कुराता गुलमोहर खड़ा हो जाता है। गुलमोहर सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। फ्रांस में इसे ‘स्वर्ग के फूल’ के नाम से जाना जाता है। गुलमोहर का पेड़ न केवल देखने में खूबसूरत होता है बल्कि औषधीय गुणों से भी भरपूर होता है। जहरीले बिच्छू के काटने पर पीले गुलमोहर का पाउडर का लेप लगाने भर से तुरंत लाभ प्राप्त होता है। यहाँ तक गुलमोहर के फूलों से श्री कृष्ण भगवान की प्रतिमा के मुकुट का श्रृंगार किया जाता है। इसलिए कृष्णा चूड़ भी गुलमोहर को कहा जाता है। गुलमोहर के फूल मकरंद के भी अच्छे स्रोत हैं। अतः मक्खियाँ शहद प्राप्ति के लिए इन पर खूब मंडराती रहती हैं। दुष्यंत इस खूबसूरत पेड़ को संकेतिकता की भाषा में अभिव्यक्त करते हैं ।शेर देखें –
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में ग़ज़लियत को बरकरार रखते हुए किस तरह संकेतों और प्रतीकों से अपनी बात कहते हैं,सीखने योग्य है । राजनीति जब स्वार्थ में लिप्त होकर जनता की समस्या पर आँखें मूंदे सोने को ही अपना फर्ज समझने लगती है, तब उस वक्त उसे अपने सिंहासन का परित्याग कर देना चाहिए। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कमल रूपी भोली-भाली जनता दुखों के समंदर में डूब जाएगी। शेर देखें-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
दुष्यंत जब शेर कहते हैं तो लगता है जैसे आम आदमी की तस्वीर चलचित्र की भांति हमारी आंखों के सामने आ गई है। हमारा शरीर या तो बोझ से झुकता है या फिर प्रार्थना में झुकता है । हमारे हिंदुस्तान में आज भी किसान और मजदूर अपनी जिम्मेदारियों के बोझ से टूटा हुआ है। किसानों को उनके अनाज का उचित मूल्य नहीं मिलता, वहीं मजदूर अपनी जी तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी की जुगाड़ ही कर पाता है । यूँ तो सरकार ने उनके लिए कई योजनाएँ चला रखी हैं, पर कितनी उनतक पहुँच पाती है, यह सर्वविदित है। शेर देखें-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
कत्ल करने वालों से ही रहम और इंसाफ की गुजारिश, व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता! गुनहगार के लिए चाकू जैसा प्रतीक शेर की शेरीयत को कई गुना बढ़ा देता है।शेर देखें –
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए
दुष्यंत बिंब के बादशाह हैं। सांझ की चादर ओढे अंधेरे की सड़क से भोर तक जाने की उम्मीद का बिम्ब जहाँ बेहद टटका है वहीं इमप्रेसिव भी।दुष्यंत के अनुसार जब जीवन के कठिन संघर्ष के उपरांत सफलता हाथ लगती है तो उस सफलता का अर्थ वही समझ सकता है, जिसने संघर्ष का ताप सहा हो। जीवन की सकारात्मकता ही उसे कठिन परिस्थितियों में विचलित नहीं होने देता ।शेर देखें-
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है
जिस तरह बच्चों को अगर मनपसंद खिलौना न मिले, तो वह उसकी खातिर छटपटाता रहता है। उसी प्रकार हमारे भीतर भी ऐसी कई यादें होती हैं, जो हमें परेशान करती हैं ,चैन से रहने नहीं देती । शेर देखें –
जैसे किसी बच्चे को खिलौने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए
जितनी भी सरकारी योजनाएँ हैं , वे समस्या सामने आने के बाद ही हरकत में आती हैं। बाढ़ आ जाने के बाद मुआवजा और क्षति पूर्ति का खेल शुरू हो जाता है। आपदा को अवसर में बदलने का यह खेल आज भी बदस्तूर जारी है। शेर देखें-
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं
और नदियों के किनारे घर बने हैं
जब तकलीफ हद से ज्यादा गुजर जाती है, तो पता ही नहीं चलता कि दर्द किधर और कहाँ होता है ?दुष्यंत की तकलीफ कुछ और नहीं आम जनता की तकलीफ ही तो है। शेर देखें-
सिर से सीने में, कभी पेट से पांवों में कभी
एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
कुछ लोग हवा में उड़ते रहते हैं ।उन्हें जीवन में यथार्थ से ज्यादा कल्पना लोक में विचरण करना पसंद है। ऐसे में, उनके पाँव के नीचे की जमीन खिसक चुकी होती है, यह उन्हें पता ही नहीं रहता। इस तरह के जज्बात समेटे खूबसूरत बिंब का एक उदाहरण देखिए –
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल यह है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
कहना न होगा कि हिंदी ग़ज़ल अपनी प्रकृति, पहचान और शब्द शक्ति से उर्दू ग़ज़ल से पृथक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुई है, जिसका श्रेय निर्विवाद रूप से दुष्यंत को जाता है। हिंदी ग़ज़ल के पास जो आज अपने मिथक, मुहावरे बिंब, रदीफ और काफिए हैं, वे सब दुष्यंत की दूरदृष्टि के परिणाम हैं।
अतः यह बात निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में दुष्यंत का प्रादुर्भाव ग़ज़ल के क्षेत्र में क्रांति के रूप में हुआ। समसामयिकता, प्रासंगिकता, प्रगतिशीलता प्रतिबद्धता और अद्भुत विचार को समेटे हुए उनकी ग़ज़लों ने पाठकों के हृदय में एक अलग पहचान ही नहीं बनाई अपितु ग़ज़ल सीखने वालों के लिए एक अलग आकाश भी दिया। दुष्यंत अपनी ग़ज़लों में कथ्य के अलावा बिम्ब, प्रतीक और मुहावरे के लिए भी सदा याद किये जायेंगे।
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परिचय : डाॅ भावना
आद्या हाॅस्पिटल, सीतामढ़ी रोड
जीरोमाईल, मुजफ्फरपुर, 842004