दुष्यंत कुमार की समसामयिकता
- राजेन्द्र राज
1975 में ‘साए में धूप‘ ग़ज़ल-संग्रह से दुष्यंत कुमार लोकप्रियता की मुकाम पर पहुंचे और आम लोगों ने उनकी सामाजिक चेतना तथा आंदोलनात्मकता को सराहा। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में ग़ज़ल विधा में इतना लोकप्रिय कोई साहित्यकार नहीं हुआ था। इनकी ग़ज़लें आम लोगों की जुबान थी और हिन्दुस्तानियत के रंग में रंगी थीं, अन्याय का विरोध किया और भ्रष्टाचार तथा विसंगतियों को स्वर दिया, रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।‘ कहते हैं कि प्रतिभा युग का शिशु होता है। बिहार में संपूर्ण क्रांति का आंदोलन लोकनायक जयप्रकाश ने चलाया था। एक निरंकुशतावादी सत्ता के खिलाफ। चारों ओर राजनैतिक अव्यवस्था फैल गई थी और आजादी के बाद देखा गया स्वप्न चूर-चूर हो गया था। जनता की जो आकांक्षाएं थीं, उसे रौंद दिया गया था। अस्थिरता का वातावरण था। राजनैतिक अव्यवस्था ने लोगों को निराश कर दिया था। उस काल में नागार्जुन, रघुवीर सहाय,गोरख पांडेय आदि समकालीन विद्रूपताओं को स्वर दे रहे थे, लेकिन ग़ज़ल जैसी विधा में लयात्मकता में जनमानस के प्रतिरोध को दुष्यंत ने ही पहले स्थान दिया। यह ग़ज़ल हिन्दुस्तानी जुबान में रहने के कारण लोग नारे की तरह गाने लगे। हर मंच और संसद,विधान सभा से लेकर चुनावी सभाओं तथा अन्य विचार-गोष्ठियों में सुनायी जाती थी। आखिर दुष्यंत कुमार ने हिन्दी साहित्य की करीब-करीब सभी विधाओं में लिखा, परंतु उन्होंने ही ग़ज़ल को हिन्दी साहित्य में प्रतिस्थापित किया। ग़ज़ल के शिल्प वही थे, मगर कथ्य की दृष्टि से उनमें नवीनता थी। कोई रचनाकार आम लोगों के बीच इसलिये लोकप्रिय हो जाता है कि वह अपनी युगीन परिस्थितियों का सजीव चित्रण करता हे। संत कवियों तुलसी, सूर मीराबाई, नानक, आदि आम लोगों के बीच इस लिए ग्राह्य हो गए कि उन्हें अपनी आवाज सुनाई पड़ी। जिन समस्याओं को वे झेल रहे थे, उन्हें अपने क्षेत्रीय और हिन्दी की बोल-चाल की भाषा में पाकर आत्मा का स्वर लगा। संत कवियों ने अपनी वेदना के द्वारा जन साधारण की पीड़ा को व्यक्त कर रहे थे। दुष्यंत कुमार ने जन-आक्रोश को ग़ज़ल जैसी लोकप्रिय व गेयय विधा में स्थान दिया। इस कारण से कल तक ग.ज.ल महफिलों और दरबारों तक सीमित थी, उसे आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाया। हिन्दी और उर्दू मिश्रित भाषा के शब्दों से एक हिन्दुस्तानी जुबान हो जाती है। वैसे हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों को घुलाने की पूर्ण क्षमता है। दुष्यंत की ग़ज़लें अपने सहज प्रवाह में है और जनपक्षीय हस्तक्षेप के साथ है। निराशा का वातावरण में ग़ज़लकार ने आशा की लौ जगाई-‘कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो‘ ,‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।‘ यह उस दौर की परिस्थितियां थीं। जनतांत्रिक बिखराव देखने को मिल रहा था। लोगों का व्यवस्था से मोह-भंग हो चका था। साम्प्रदायिक शक्तियां सिर उठज्ञने लगी थीं और भ्रष्टाचार का अजगर लिपटता जा रहा था। इस तरह से उन्होंने उस भयावह परिस्थितियों को अवीकार किया तथा प्रतिरोध को शामिल किया। एक प्रकार से उनके साहस व पौरूष का परिचायक था, जो सत्ता के एशो-गान से दूर रहा। उन्हें अपने समय की चिंता थी, आम जनों की निराशा तथा पीड़ा की जानकारी थी। अपने नैराश्य और पीड़ा के बीच समस्याओं मे जूझते हुए आम आदमी संघर्ष कर रहा था और आंदोलित था। हमारे छठे दशक के बाद ही गणतंत्र की विद्रूपताएं व विसंगतियां सामने आने लगी थीं। मुक्तिबोध और धूमिल जो अपनी कविताओं में कह रहे थे, उसे एक सुंदर लहजे और अंदाज में दुष्यंत ग़ज़ल में हर जगह छा गए।
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परिचय : राजेन्द्र राज, पूर्व प्राचार्य, जनता कॉलेज, सूर्यगढ़ा, लखीसराय
मो. 8210935832,9852381812