हिन्दी का नाराज़ शायर दुष्यंत
-डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी
दुष्यंत नई कविता के कवि हैं, और नई कविता के कवि के रूप में भी काफ़ी प्रसिद्ध रहे.यह अलग बात है कि किसी सप्तक में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने उन्हें अवसर नहीं दिया. वो नई कविता के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं,जो सप्तक में न होने के बावजूद प्रमुखता से अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं,और कभी अपने सिद्धांत और उसूलों से समझौता नहीं करते. यह कवि जब गजल की दुनिया में आता है तो कोई परंपरागत इश्क की शायरी नहीं करता,बल्कि एक बूढ़ा आदमी को मुल्क का रोशनदान कहता है.अपनी नौकरी करते हुए उन्हें बार-बार तंग किया जाता है. हिंदी के कवि दुष्यंत और दिनकर के जितने ट्रांसफर हुए वह किसी से छुपा हुआ नहीं है. यह दुष्यंत वास्तव में सच लिखते थे,और किसी से डरते नहीं वाले नहीं थे.वह तब भी नहीं डरे जब राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने स्पष्टीकरण के लिए उन्हें अपने पास बुला लिया था.
हिंदी कहानी में प्रेमचंद और हिंदी कविता में कबीर दो ऐसे ऋषि हैं,जिन्हें कभी सीमाएं नहीं बांध सकीं.उन्होंने जो देखा वह लिखा.इन दोनों के बाद अगर सच बोलने वाला कोई और कवि -शायर पैदा हुआ,तो उसका नाम दुष्यंत था.उन्होंने जब कहा- ‘सीमाओं से बंधा नहीं हूं’ तो वास्तव में वह किसी सीमा से नहीं बंधे.उर्दू का एक शायर कहता है- ‘ज़मीं पे बैठके क्या आसमान देखता है?’ दुष्यंत हिंदी के ग़ज़लगो थे,इसलिए ज़मीन से बैठकर जमीन की आफ़त देख रहे थे.आसमान को उन्होंने आसमान वाले के लिए छोड़ दिया था. कुछ लोगों ने दुष्यंत को नागार्जुन की परंपरा का माना है. मैं समझता हूं कि दुष्यंत का प्रतिवाद नागार्जुन से बढ़कर है. नागार्जुन का विरोध सतही है.वह इंदिरा का विरोध करते हैं और उनसे पुरस्कार भी प्राप्त करते हैं. दिनकर के पास भी नौकरी, निर्धनता और सत्ता की मजबूरी रहती है,पर दुष्यंत सच उगलने के लिए अपनी नौकरी,न्यायालय या अकादमियों की परवाह तक नहीं करते.दुष्यंत इश्क-मुश्क़ की शायरी करने वाले नहीं थे, अगर ऐसा होता तो न हिंदी में शायरी जिंदा होती और न दुष्यंत जिंदा रहते.दुष्यंत ने गजल के लहजे को बदला, और आम लोगों की जरूरतों और देश के नाज़ेबा हालात से उसे जोड़ा, इसलिए उन पर लिखते हुए विजय बहादुर सिंह ने उन्हें दुस्साहसी कवि कहा है. दुष्यंत कविता लेखन की शुरुआत अपनी किशोरावस्था के दिनों से करते हैं, पर उनकी ज्यादातर ऐसी कविताएं अधूरी रह जाती हैं.जाहिर है उस किशोर के दिल में जो बेचैनी है वह कविताओं में पूरी तरह से नहीं आ पा रही है. दुष्यंत मार्ग बदलते हैं. कविताएं कहानियां नवगीत सब को आज़माते हैं. सब की तासीर पाते हुए जब वह गजल की तरफ आते हैं,तो उन्हें पता चलता है कि उनकी बेचैनी और ख़लिश का माध्यम यही गजल हो सकती है, इसलिए यह कवि जो हेमलता के प्यार में पागल था और ‘चिर प्रतीक्षा में तुम्हारी गल गये लोचन हमारे..’ जैसी पंक्तियां लिखता था, उसने गजल में आकर कहा –
ये ऊब,फिक्र और उदासी का दौर है
फिर कैसे तुम पे शेर कहें रीझते हुए
राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विरोध और बगावत से दुष्यंत का पैदाइशी रिश्ता रहा. वह जब प्रेम करता है तब भी जयशंकर प्रसाद के मेरे नाविक की तरह प्रेयसी को जगत भूलने को नहीं कहता, बल्कि वह कहता है -‘ मेरी तो इच्छा है प्रिय / आओ हम -तुम कहीं दूर चलें….’ जब घनानंद की सुजान की तरह यह प्रेयसी साथ नहीं देती तो पत्नी के प्रति कविता लिखते हुए कहता है- तुम्हारी याद में पागल प्रवासी लौट आया है…
दुष्यंत गांधी को मानते थे,और कुर्ता पजामा के साथ गांधी टोपी पहनते थे. उन्होंने सुमित्रानंदन पंत को अपना गुरु माना था. दोनों में अंतर यह है कि पत का मन प्रकृति में लगता है, और दुष्यंत का प्रतिकार में. सिर्फ कविता के माध्यम के प्रति ही नहीं, कवि को अपने नाम के प्रति भी संशय की स्थिति है. वह कभी अपना तखल्लुस विकल जोड़ता है,कभी परदेसी और अंततोगत्वा दुष्यंत कुमार बनकर रह जाता है. यह वह नाम है जो हिंदी ग़ज़ल में चांद बनकर रोशन हुआ, और जिसके न होने से रात अमावस्या बन जाती है. दुष्यंत के हिस्से कविता की कुल तीन पुस्तकें हैं – एक ग़ज़ल की किताब साये में धूप, सूर्य का स्वागत तथा जलते हुए वन का बसंत. सूर्य का स्वागत में कुल अड़तालिस कविताएं हैं,जो कवि के जुझारू व्यक्तित्व को प्रदर्शित करती हैं . जलते हुए वन का वसंत मैं कवि का बिल्कुल अलग तर्ज़ है और यही राजनीतिक असंतोष, बढ़ती हुई आर्थिक खाई तथा आक्रोश-द्रोह,विद्रोह दुष्यंत की शायरी में उभर कर सामने आ जाता है. दुष्यंत ने कभी कहा था मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं. जाहिर है सत्ता और समाज का जो चरित्र है दुष्यंत उसे नहीं छुपाते वह साफ-साफ कहते हैं –
तुम्हारी बदौलत मेरा देश
यातनाओं से नहीं
फूल मालाओं से दबकर मरा है…
दुष्यंत जब ग़ज़ल की दुनिया में आते हैं तो फिर वही घोषणा करते हैं-‘ सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए मैंने ग़ज़लें नहीं कही.’ आगे वह उस तकलीफ की बात करते हैं जिससे सीना फटने लगता है जाहिर है उनके एक-एक शेर जन- विरोधी चेहरा दिखाने वाला है. कालांतर में यही हिंदी ग़ज़ल की प्रवृत्ति बनी. आखिर कमलेश्वर ने उनका नाम नाजिम हिकमत और पाब्लो नेरुदा से जोड़कर यूं ही नहीं देखा था. दुष्यंत सिर्फ हंगामा करने वाले शायर नहीं हैं.उनकी कोशिश सूरतों को बदलने और सीने में आग पैदा करने की है. उनकी शायरी पूरी उर्दू- हिंदी गजल परंपरा में पहली बार भूख और बेकारी से जुड़ती है –
इस कदर पाबंदी-ए -मज़हब कि सदके आपके
जब से आजादी मिली है मुल्क में रमजान है
जाहिर है हालात ऐसे हैं की भूख लगने पर खाने की और प्यास लगने पर पीने की भी पावंदी है.
गजल जो कि नर्म सुखन बनकर फूटती है, उसमें हालात और मामलात का ऐसा कठोर चित्रण दुष्यंत के बूते की ही बात थी.
उर्दू शायरी में जिस भूने हुए कबाब का वर्णन था, वह दुष्यंत की हिंदी ग़ज़ल में आदमी खुद भुना हुआ कबाब बनकर रह जाता है-
अब नई तहजीब के पेशे नजर हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं
बस इतना ही नहीं स्थिति इतनी गंभीर है कि एक हंसता हुआ आदमी भी चीखने -चिल्लाने लगता है.
हिंदी गजल लेखन में दुष्यंत का दखल एक शौक नहीं उपकार है, क्योंकि दुष्यंत अगर नहीं होते तो हिंदी गज़ल काव्य की एक मृतप्राय विधा बनाकर हमारे सामने रह जाती. आज दुष्यंत हैं तो इस बहाने कबीर, निराला,प्रसाद और शमशेर का जिक्र भी आ जा रहा है. पूरी हिंदी गजल परंपरा का अगर आप अध्ययन करें तो हिंदी ग़ज़ल दुष्यंत और अदम गोंडवी की शैली को अपनाती हुई नजर आती है. हिंदी गजल की यह खुशकिस्मती है कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल परंपरा में उनके पास उर्मिलेश ,ज्ञान प्रकाश विवेक,अनिरुद्ध सिंहा, हरेराम समीप,विनय मिश्र,डॉ. भावना और बालस्वरूप राही जैसे नामचीन शायर मौजूद हैं.
दुष्यंत पर बात करते हुए उनके गद्य रूप को अक्सर भुला दिया जाता है. छोटे-छोटे सवाल और आंगन में एक वृक्ष जैसे उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं. मिस पीटर जैसी सात महत्वपूर्ण कहानियां हैं. दुष्यंत रचनावली के तीसरे भाग में उनके कई संस्मरण,साक्षात्कार निबंध, लेख आदि भी मौजूद हैं. नई कहानी परंपरा और प्रगति जैसी उनकी कई आलोचनात्मक कृति भी हैं . यह कृतियां भी अपने समय के प्रश्नों से टकराती हैं और सरकार के औचित्य और ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं.
दुष्यंत ग़ज़ल में नई कविता और नई कहानी से आए हैं. हिन्दी में यह दोनों विधा आजादी के बाद की उपजी हुई निराशा पर केंद्रित है.दुष्यंत ग़ज़ल में भी इस फ़िक्र को रखते हैं –
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही
हमें आजादी महज़ सत्ता के हस्तांतरण के लिए नहीं मिली थी. आज़ादी हमें अपने हक को पाने के लिए थी,और इसलिए हमने लंबी लड़ाइयां लड़ी. देश को जैसी आजादी मिली दुष्यंत उसके कायल नहीं थे,पर गद्दी ऐसे लोगों को मिल गई थी कि हालात का बदलता इतना आसान नहीं रह गया था –
तफ़सील में जाने से तो ऐसा नहीं लगता
हालात के नक्शे में अब रद्दोबदल होगी
आजादी की लंबी लड़ाई दास्ता से मुक्ति थी. हमें दास्ता से मुक्ति तो मिली,पर भ्रष्टाचार शोषण और भाई-भतीजावाद के हम शिकार हो गए.दिल्ली में अंग्रेजों की जगह भारतीयों ने भले ले ली,पर आम जनता वैसी ही पिसती रही. एक वक्त ऐसा भी आया जब लोगों को एहसास होने लगा –
ये रोशनी है हकीकत में एक छल लोगों
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगों
दुष्यंत की शायरी इसी नाइंसाफी के खिलाफ है,पर इस विद्रोह में भी दुष्यंत की भाषा सरल बनी रहती है और गज़लियत अपनी जगह कायम रहती है.
दुष्यंत को दुष्यंत बनाने में उनकी नौकरी और मित्र मंडली का भी काम स्थान नहीं है. रेडियो की नौकरी करते हुए उन्होंने नेताओं से कई साक्षात्कार लिए, फिर उन्हें पता चला कि नेताओं की कथनी और करनी में पर्याप्त अंतर है.जो सरकारें चुनी गई.इसके साथ जिस देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई जब वही सरकार संविधान को बाला -ए -ताक रखकर यहां के लोगों के मौलिक अधिकार को छीन ले तो इससे बड़ी आपदा क्या हो सकती है. ऐसे हालात में जब तमाम आवाजें खामोश कर दी गईं. लिखने पर पहरा लग गया.तब भी एक आवाज थी जो वहां गूंज रही थी और वह दुष्यंत की आवाज थी –
किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े
हमने ही खुद पतंग उड़ाई थी शौकिया
मतलब साफ है कि उस कुव्यवस्था के जिम्मेवार हम खुद हैं –
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
विकास और विस्तार की बात तो छोड़ दें.रोटी जो इंसान की पहली जरूरत है,वही म्यस्सर नहीं रही. दुष्यंत ने साफ लिखा और सीधे दिल्ली को निशाना बनाया-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ
पूरी उर्दू हिंदी ग़ज़ल में बगावत की ये पहली जबान थी, जिसे दुष्यंत ने अपनाया था. उनकी इस आवाज के साथ ही शायरी में तीखे तेवर की इब्तिदा होती है. दुष्यंत नेताओं के ढोंग और आश्वासन का पोल खोलते हैं.भूख,महंगाई,गरीबी, दुःख -तकलीफ और अभाव के खिलाफ आवाज उठाते हैं.वह अपने एक लेख में लिखते हैं भ्रष्टाचार की कहानी अमरबेल की तरह बढ़ रही है.ऐसे झूठे भरोसे उनकी कविताओं के विषय भी बने और गज़लों के भी –
रुक जाएगा पुनः आश्वासनों का सूर्य
भाषणों की धूप में तपते हुए चेहरे
विदा लेंगे
यही बात जब उनकी ग़ज़ल में आती है तो शेर यूं बनता है –
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों
………
आदमी होंठ चबाये तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे ये तो हद है
………
देख दहलीज से काई नहीं जाने वाली
यह खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली
यही कारण है कि दुष्यंत अपनी ग़ज़ल को सल्तनत के नाम बयान कहते हैं.वह खामोश रहने वाला शायर नहीं हैं , और न ही वह महज तमाशबीन बनकर रहना चाहते हैं –
मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशाबीन नहीं
और फिर यह जवान भी ऐसी कि –
ये जुबां हमसे सी नहीं जाती
जिंदगी है कि जी नहीं जाती
दुष्यंत की शायरी का जन- सामान्य पर ऐसा असर हुआ कि दिल्ली की सरकारें हिलने लगीं.साहित्य पर यह विधा हावी हो गई, और कविता का मतलब ही गजल समझा जाने लगा.जिसका नई कविता वालों ने काफ़ी विरोध किया, और ये मानसिकता कमोबेश आज भी है.
उनके मित्र कमलेश्वर ने उन्हें लोकतंत्र का सच्चा पहरेदार और सरहदों का निगहबानी करने वाला बताया था, तो वास्तव में वो ऐसा करते भी हैं.
दुष्यंत की रचनाएं सत्ता पर सीधे प्रहार करती हैं.दुष्यंत को अगर सबसे ज्यादा चिढ़ है तो नेताओं के छद्म समाजवाद से, क्योंकि ये जनता को भ्रमित करते हैं. दुष्यंत की शायरी असलियत को खोल कर रख देने वाली है. इसलिए चिथड़े पहने हुए नुमाइश में मिला आदमी उनकी नजर में आम हिंदुस्तानी है. दुष्यंत जानते हैं कि राज सत्ताधीशों के पास ज़मीर तक नहीं बचा है, और उसने अपने ईमान तक का सौदा कर लिया है.तब ऐसे लोगों से क्या कहना –
उसने जमीर बेच दिया है तो शक नहीं
वह शख्स कामयाब हुआ चाहता है अब
कहना ना होगा कि हर वह आदमी आज कामयाब है जिसने अपने जमीर का सौदा कर लिया है, और जिसने इसे नहीं बेचा,उसकी हालत कैसी है दुष्यंत के ही अशआर में देखें –
जो बेसुरे हैं वो मजमों के बीच जाते हैं
जो आज सुर में हैं उनकी कोई समात नहीं
………..
एक तालाब सी भर जाती है हर बारिश में
मैं समझता हूं ये खाई नहीं जाने वाली
और इस खाई की वजह से हंगामे से मना करने वाला यह शायर हंगामा करने पर आमादा हो जाता है-
पक गई है आदतें बातों से सर होगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं
यह हंगामा भी इसलिए जरूरी है कि –
हर दर्द बेनकाब हुआ चाहता है अब
सीने में इंक़लाब हुआ चाहता है अब
यह शायर जब कविता लिख रहा होता है तब भी यही प्रतिवाद और जन विरोधी ताकत का स्वर अपनाता है –
जुल्म चाहे जितना हो
आवाज मरती नहीं है
सिर्फ जुड़े रहो बोलते हुए
यानी खामोशी तोड़ते रहो
दुष्यंत की नजर में इस स्थिति के लिए जनता भी कम जिम्मेवार नहीं है,क्योंकि उसने ही हालत को बदलने की कोई कोशिश नहीं की. फिर यह शायर पूरी उम्मीद और भरोसे से कहता है-
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
परिस्थितियों अगर विरोधी भी हो तो हौसले उसे मवाफिक बना देते हैं –
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नो जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है
आप अगर दुष्यंत की भाषा पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि विशेषकर गजलों में दुष्यंत ने उस भाषा का इस्तेमाल किया है जो आम लोगों की भाषा है. आज आवाम की यही भाषा हिंदी ग़ज़ल की मानक भाषा के रूप में स्वीकृत है.
दुष्यंत की वह गजल जो शुद्ध हिंदी या उर्दू में है. स्वयं उनके ही शब्दों में वह ज्यादा कृत्रिम हो गई है. इसलिए वह कहते हैं मेरी एक कोशिश यह भी रही है कि हिंदी और उर्दू के बीच में सेतु का काम कर सके, इसलिए दुष्यंत की गजल को पढ़ते-पढ़ाते हुए भी किसी शब्दकोश की जरूरत नहीं पड़ती. उनकी गजलें उर्दू हिंदी की भाषाई लालित्य के अद्भुत नमूने हैं. कुछ शेर देखें –
धूप ये ठखेलियां हर रोज करती हैं
एक छाया सीढ़ियां चढ़ती उतरती हैं
……….
ये लोग होमो हवन में यकीन रखते हैं
चलो यहां से चले हाथ जल न जाए कहीं
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दुष्यंत की रचनाएं पूंजीवादी समाज और लोकतंत्र की खामियां, भाई- भतीजाबाद स्वार्थपरता,चुनावी नाटकीयता,झूठे आश्वासन, दोहरे चरित्र, लोगों की चालबज़ियों को बेहद साफ तरीके सामने रखती हैं.
हिंदी ग़ज़ल का यह नया तेवर दुष्यंत की शायरी से शुरू होता है, और वहीं समाप्त हो जाता है. दुष्यंत का एक-एक शेर हिंदी ग़ज़ल की थाती है. हमें इस बात का गुरूर है कि हमारे पास दुष्यंत जैसा शायर है.
………………………………………………
परिचय : प्राध्यापक, हिंदी
ग्राम +पोस्ट -माफ़ी, वाया -अस्थावां, ज़िला -नालंदा 803107,बिहार 9934847941