जनकवि दुष्यन्त : हिंदी ग़ज़ल में सामाजिक सरोकार और साहित्यिक योगदान
– डॉ. पूनम सिन्हा श्रेयसी
हिंदी साहित्य के इतिहास में अनेक कवि हुए जिन्होंने कविता को अलग-अलग आयाम दिए। लेकिन दुष्यन्त कुमार उन चुनिंदा कवियों में हैं जिन्होंने कविता को सीधे जनता से जोड़ दिया। हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक के रूप में उन्होंने ग़ज़ल को नई पहचान दी। उनकी रचनाएँ केवल साहित्यिक कृतियाँ नहीं बल्कि जनांदोलन की आवाज़ बनीं।
दुष्यन्त कुमार का जन्म 1 सितम्बर 1933 को बिजनौर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इलाहाबाद-फैजाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। आकाशवाणी से जुड़े रहने के दौरान उन्होंने नाटक और काव्य-रचनाएँ कीं। उनका निधन 30 दिसम्बर 1975 को हुआ। यद्यपि जीवन अल्प रहा, किंतु उपलब्धियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
उनकी साहित्यिक कृतियाँ हैं –
सूर्य कहाँ से उगेगा (कविता संग्रह)
आवाज़ों के घेरे (कविता संग्रह)
जलते हुए वन का दृश्य (कविता संग्रह)
छोटे-छोटे सवाल (कविता संग्रह)
साये में धूप (ग़ज़ल संग्रह – सर्वाधिक प्रसिद्ध)
उनकी ग़ज़लों में सामाजिक और राजनीतिक सरोकार हैं । व्यवस्था की आलोचना और जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति है। सरल, सहज और जनभाषा का प्रयोग है एवं व्यंग्य और विडंबना की तीखी शैली है ।
शेर देखें –
“कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।”
भाषा और शिल्प के दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञात होता है कि
दुष्यन्त कुमार की भाषा लोकजीवन से जुड़ी है।
उनकी रचनाओं में बिंब और प्रतीक सीधे जनता के अनुभव से लिए गए हैं। व्यंग्यात्मकता और गेयता उनकी ग़ज़लों की खासियत है सामाजिक विषमता, भूख, गरीबी और शोषण का शाब्दिक चित्रण है। राजनीति की विफलता और नेताओं का पाखंड है। आम आदमी की पीड़ा और क्रांति की आकांक्षा है ।
शेर देखें –
“भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ोरों से चर्चा रोज़गार की।
आलोचक मानते हैं कि दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें शुद्ध उर्दू ग़ज़ल की कसौटी पर नहीं उतरतीं। लेकिन यही उनकी उपलब्धि है कि उन्होंने ग़ज़ल को हिंदी मिट्टी में रोपा और उसे आम आदमी तक पहुँचाया। उनके बाद अदम गोंडवी, आलोक धन्वा, कुमार विश्वास आदि कवियों पर उनका स्पष्ट प्रभाव दिखता है। दुष्यन्त कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को स्थायी रूप से बदल दिया। आज भी उनकी पंक्तियाँ आंदोलनों, भाषणों और साहित्यिक गोष्ठियों में गूँजती हैं। लोकतंत्र की विफलताओं और सामाजिक विषमता पर उनका व्यंग्य आज भी उतना ही सटीक है।
शेर देखें –
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,है
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।”
दुष्यन्त कुमार की साहित्यिक उपलब्धि यह है कि उन्होंने ग़ज़ल को आमजन की जुबान बना दिया। उन्होंने कविता को जनांदोलन का शस्त्र और ग़ज़ल को व्यवस्था-विरोध की आवाज़ बना दिया। उनकी रचनाएँ आज भी समय की दीवारों को लाँघकर प्रासंगिक बनी हुई हैं। वे हिंदी साहित्य में जनकवि और हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक के रूप में अमर रहेंगे।
संदर्भ सूची :
1. कुमार, दुष्यन्त. साये में धूप. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1975.
2. कुमार, दुष्यन्त. आवाज़ों के घेरे. प्रयागराज: लोकभारती प्रकाशन, 1961.
3. मिश्र, नामवर. हिंदी साहित्य की भूमिका. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1982.
4. शुक्ल, रामविलास. समकालीन हिंदी कविता. वाराणसी: भारतीय जर्नल प्रकाशन, 1980.
5. शुक्ल, धर्मवीर. हिंदी ग़ज़ल और दुष्यन्त कुमार. लखनऊ: साहित्य सदन, 1990.
6. पांडेय, अशोक. “दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों में सामाजिक यथार्थ.” हिंदी साहित्य समीक्षा, खंड 5, अंक 2, 2005.
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परिचय : लेखिका डॉ. पूनम सिन्हा श्रेयसी के आलेख और रिसर्च पेपर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं
पटना, मो 8340484896