साये में धूप’ के पचास साल और दुष्यंत कुमार की ग़ज़लधर्मिता : डॉ.अविनाश भारती

साये में धूप’ के पचास साल और दुष्यंत कुमार की ग़ज़लधर्मिता

  • डॉ. अविनाश भारती

दुष्यंत कुमार की कालजयी कृति ‘साये  में धूप’ के प्रकाशन के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं। सन् 1975 में प्रकाशित दुष्यंत का यह इकलौता ग़ज़ल-संग्रह अपनी नवीनता और दूरदर्शिता की वजह से आज भी पाठकों के बीच ख़ूब लोकप्रिय और प्रासंगिक है। इन पाँच दशकों में वक़्त बेशक बूढ़ा हो गया हो किंतु दुष्यंत की ग़ज़लें आज भी जवान हैं।
दूसरी ओर दुष्यंत की ग़ज़ल धर्मिता, उनकी प्रतिबद्धता मौजूदा समय के ग़ज़लकारों को प्रेरणा और सही दिशा देने का काम करती है। कहीं-न-कहीं 70 के दशक में इंक़लाब की जो मशाल दुष्यंत कुमार ने जलाई थी, आज वही मशाल हिन्दी ग़ज़लकारों के हाथों में है। अब हिन्दी ग़ज़ल तनिक भी अकाव्योचित और असाहित्यिक नहीं रही। अर्थात् अब ग़ज़ल भी अन्य साहित्यिक विधाओं की भाँति सामाजिक, राजनैतिक तथा धार्मिक विद्रूपताओं को रेखांकित करती हैं।… और इन सबके पीछे दुष्यंत कुमार का अतुलनीय योगदान है। दुष्यंत की बनाई परिपाटी, उनकी सोच और उनका तौर-तरीका वर्तमान ग़ज़ल-लेखन परंपरा की पहली शर्त जान पड़ती है।
विदित हो कि आयातित विधा होने के कारण हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़ल के कथ्य एवं शिल्प से प्रभावित तो है किन्तु  इसने अपने कथ्य-कौशल में निश्चय ही परिष्कार किया है जो प्रत्यक्ष रूप से समाज की समस्याओं से जुड़ती हैं। ग़ौर करने पर ज्ञात होता है कि हिन्दी ग़ज़ल में शिल्प के अलावा शेष सब कुछ हिन्दी कविता का ही है। अतः कहा जा सकता कि हिन्दी ग़ज़ल-लेखन की अपनी पृथक और गौरवशाली परम्परा रही है।
यह अलग बात है कि हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत से जानी और पहचानी गई लेकिन हिन्दी ग़ज़ल के पहले शोधकर्ता डॉ. रोहिताश्व अस्थाना की माने तो दुष्यन्त कुमार के पूर्व ही हिन्दी में ग़ज़ल की एक सुदीर्घ एवं सुसंपन्न परंपरा विद्यमान थी। अमीर खुसरो द्वारा आरंभ की हुई यह विधा कबीर, भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रसाद, निराला, शमशेरबहादुर सिंह जैसे समर्थ कवियों के हाथों में पलकर अपना व्यापक अस्तित्व बना चुकी थी। दुष्यन्त को भी शमशेर बहादुर की ग़ज़लों से व्यापक प्रेरणा प्राप्त हुई। उन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से नई कविता की अति बौद्धिकता के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इतना ही नहीं, उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल को परंपरागत प्रेम और सौंदर्य की संकीर्ण परिधि से मुक्त करके समसामयिक जीवंत संदर्भों से जोड़ते हुए इस क्षेत्र में नवीन संभावनाओं को जन्म दिया, वास्तव में हिन्दी में नई ग़ज़ल अथवा हिन्दी ग़ज़ल का आंदोलन खड़ा करने का श्रेय निर्विवाद रूप से दुष्यन्त कुमार को ही जाता है। उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल को विधिवत् एक नई एवं स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया तथा उसे लोकतंत्रात्मक साँचा भी प्रदान किया। दुष्यन्त की ग़ज़लें निरंतर ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘प्रतीक’, ‘कल्पना’ आदि जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने के उपरांत पुस्तक के आकार में ‘साये में धूप’ के नाम से प्रथम बार सन् 1975 में प्रकाशित हुईं जिसमें कुल 52 ग़ज़लें संकलित हैं और यही 52 ग़ज़लें ‘साये में धूप’ के पचास वर्ष पूरे होने के बाद भी आम-अवाम के दिलों-दिमाग़ पर पक्के रंग की भाँति अंकित हैं।
हिन्दी ग़ज़ल को एक विधा के तौर पर स्थापित करने में दुष्यंत के अवदान को नहीं कभी नहीं भुलाया जा सकता। ‘साये में धूप’ के प्रकाशन से लेकर आज तक हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत की ग़ज़लें अपना रुतबा, आबो-ताब, अपनी सार्थकता और विमर्श बनाए हुए हैं। इन पाँच दशकों में वक़्त बेशक बूढ़ा हो गया हो किंतु दुष्यंत की ग़ज़लें आज भी जवान हैं।
निःसंदेह  हिन्दी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने काव्य को नयी भावभूमि एवं नवीन तेवर  प्रदान किये हैं जिस कारण  ग़ज़ल दरबारों से निकलकर जनमानस का कंठहार बन गई है।
दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में आवाम के दुख की गहरी चिंता है तो आवाम के टूटे हुए सपनों की बेचैन आवाज़ें भी सुनाई देती हैं। दुष्यंत कुमार ने हमेशा ही अपनी ग़ज़लों में स्व-पीड़ा की जगह आम जनमानस की पीड़ा को प्राथमिकता दी है। इस कथन की पुष्टि के लिए उनके ये शे’र बेहद उपयुक्त जान पड़ते हैं। शे’र हैं-

इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उँडेल,
अब लोग टोकते हैं ग़ज़ल है कि मर्सिया।

इसी प्रकृति का यह शे’र देखें-

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू,
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।

ज़ाहिर सी बात है कि दुष्यंत का ध्यान देश की गरीबी, लाचारी और बेबसी की ओर है। कहीं-न-कहीं ग़ज़ल की परिभाषा दुष्यंत की कसौटी तक आते-आते बदल जाती है। वह अन्य सभी सामाजिक समस्याओं पर बराबर नज़र रखती है तथा अन्य सभी विधाओं की भांति ग़ज़ल भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ती हुई प्रतीत होती है। फलस्वरूप दुष्यंत की ग़ज़लों को हिन्दी ग़ज़ल का मुख्य द्वार कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
दुष्यंत कुमार बखूबी आम आदमी की बेबसी और लाचारी से वाक़िफ़ हैं और पूरी संवेदना व मुखरता के साथ उनकी आवाज़ बुलंद करते हैं, लेकिन दुष्यंत आम जनता की इस दयनीय स्थिति का कारण भी उन्हें ही मानते हैं। लंबे समय तक गुलामी में जीने के कारण आज़ाद भारत में भी लोगों की मानसिकता में कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिलता। इसी कारण से आम अवाम के प्रति अगाध प्रेम और मोह के होने के बावजूद भी ग़ज़लकार की नाराज़गी उनकी ग़ज़लों में साफ़-साफ़ मुखरित होती है। इस बाबत कुछ उल्लेखनीय अश’आर ध्यातव्य हैं-

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।

तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।

ये लोग होमो-हवन में यक़ीन रखते हैं,
चलो यहाँ से चलें, हाथ जल न जाए कहीं।

विदित होगी कि किसी भी समाज या राष्ट्र के विकास में बाधा उत्पन्न करने वाले कारकों में अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, जड़ता, कर्तव्य-हीनता, सरकार की उदासीनता आदि प्रमुख हैं।
दुष्यंत कुमार इन्हीं जड़ताओं को तोड़ने की बात करते हैं। लंबे समय से सुषुप्तावस्था में पड़े लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ दुष्यंत कुमार अन्य रचनाकारों को भी अपनी रचनाधर्मिता का अहसास कराते हुए नज़र आते हैं।
समस्याओं के उन्नमूलन हेतु कई उदाहरण, प्रतिकों और बिम्बों का सहारा लेते हुए ग़ज़लकार कहते हैं-

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तो,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

लिखित साहित्य को आधार बनाकर आलोचकों ने स्वीकार किया है कि साठोत्तरी कविता मोहभंग की कविता रही है। राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव से पहले लुभावने सपने दिखाकर आम-अवाम से वोट तो ले लेती हैं लेकिन सत्ता में आने के  बाद उनके दिखाये सपने कभी साकार नहीं होते। लोगों की इसी नाराज़गी और मोहभंग की स्थिति को दुष्यंत कुमार ने भी अपनी ग़ज़लों का मुख्य विषय बनाया है। एक शे’र ध्यातव्य है-

कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप,
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।

एक आदर्श समाज और राष्ट्र-निर्माण के प्रति ग़ज़लकार अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण-भाव ज़ाहिर करते हुए कहता है-

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ।

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।

अपनी प्रतिबद्धता और कोशिशों के साथ-साथ दुष्यंत कुमार आम-अवाम को भी अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास कराते हुए नज़र आते हैं। उन्हें पता है कि सरकार की उदासीनता यूँ ही नहीं ख़त्म होगी, उसे ख़त्म करना पड़ेगा। अर्थात अब लोगों को जगना होगा और अनवरत अपने जगे होने का अहसास भी कराते रहना होगा।  इस बाबत कुछ चर्चित और लोकप्रिय अश’आर देखें जा सकते हैं। शे’र हैं-

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।

अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी ग़ज़ल की भूमिका’ में शिवशंकर मिश्र स्वीकार करते हैं कि-“भाषा, विचार, काव्य-संस्कार तथा समसामयिकता का जो संतुलन दुष्यंत ने प्राप्त किया, वह संभवतः अभी तक दुहराया नहीं जा सका है।”

हिन्दी में एक बड़े फ़लक पर दुष्यंत ने पहली बार ग़ज़लों से राजनीतिक कविता का काम लिया और वह भी उस्तादों की सफ़ाई और सफलता के साथ। कहना तो यह चाहिए कि निराला और त्रिलोचन में जो किसी हद तक राजनीतिकार्थिक सत्ता की लोलुपता-निरंकुशता और शोषण प्रति वितृष्णा और विरोध बना था, इन बीच के वर्षों में वह भी शांत हो गया था और दुष्यंत की ग़ज़लों में हमें वे चीजें सिर्फ़ लौटकर नहीं मिलतीं, बल्कि बिल्कुल नये सिरे से और नये रूप में मिलती हैं। फ़र्क़ यह था कि निराला और त्रिलोचन में जहाँ आवाज़ मार्क्सवाद के माउथपीस से आ रही थी, दुष्यंत में यह आवाज़ एक नागरिक की आवाज़ थी। ज़ाहिर है इसमें क्रांतिकारी आंदोलन के स्वर की बजाय एक नागरिक आंदोलन का स्वर था। इसके बावजूद कि ‘साये में धूप’ की अधिकांश ग़ज़लें इंदिरा गांधी और आपातकाल के विरोध की राजनीतिक पृष्ठभूमि में ही बनी थीं, ये तात्कालिक राजनीति की प्रतिक्रियावादी सीमाओं को लाँघकर एक लोकप्रिय जन-आंदोलन की पक्षधर बन जाती हैं जिसके साथ ही एक बार और साबित होता है कि कविता राजनीति से अपने कथ्य और अनुभव लेकर भी अपनी अभिव्यक्ति और अपील में असंकुचित और व्यापक होती है। दुष्यंत के ही शब्दों में-

तुम्हीं से प्यार जताएँ, तुम्हीं को खा जाएँ,
अदीब यों तो सियासी हैं, मगर कमीन नहीं।

जिन्हें आम आदमी और किसानों की हिफाज़त करनी थी, दुर्दशा को ठीक करनी थी वो आज अपनी अय्याशी पूर्ण जीवन में लिप्त हैं। उन्हें अपनी फ़िकर है, गरीबों की नहीं। गरीबों के सामने उनका हिमायती बनना और पीछे में उन्हीं का शोषण करना नेताओं के इस चरित्र से दुष्यंत कुमार पूर्णतः वाक़िफ़ जान पड़ते हैं। उनका यह शे’र इस बात की पुष्टि करता है। शे’र देखें-

आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं।

यह सही है कि दुष्यंत कुमार आम लोगों की दुर्दशा के पीछे आम लोगों को ही जिम्मेदार मानते हैं। उन्हें अफ़सोस है कि लोग अपने अधिकारों से अनजान हैं। भय की वज़ह से ख़ामोश रहना इनकी नियति बन चुकी है। लेकिन उन्हें इस बात का भी  भान है कि व्यवस्था परिवर्तन हेतु इनका भयमुक्त और जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है। इस बाबत निराश और हताश मन में ऊर्जा का संचार करता हुआ उनके ये कालजयी अश’आर देखे जा सकते हैं-

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

पक गई है आदतें, बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो, ऐसे गुज़र होगी नहीं।

समय-समय पर तानाशाही और निरंकुश सरकार को सही रास्ते पर लाने के लिए सरकार की गलत नीतियों का पुरजोर विरोध होना भी आवश्यक है। सन् 1974 में बिहार में भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ़ छात्रों द्वारा शुरू किया गया एक राजनीतिक आंदोलन जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था, हम सबके लिए आज भी मिसाल है। जयप्रकाश नारायण की हिम्मत और कर्मठता के प्रति उद्गार व्यक्त करते हुए दुष्यंत कुमार कहते हैं-

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो-
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है।

निसंदेह दुष्यंत कुमार ने मनोरंजन की पर्याय बन चुकी ग़ज़ल को उसकी परंपरागत परिभाषा और परिधि से बाहर निकाला और नया कलेवर तथा दायरा प्रदान किया। दुष्यंत कुमार ने स्वीकार किया है कि साहित्य का काम मनोरंजन करना नहीं, अपितु समाज में सार्थक बदलाव लाना है। यह सोच उनकी ग़ज़ल लेखन की पहली शर्त जान पड़ती है। उनकी ग़ज़लों में आम आदमी की पीड़ाओं की मुखर अभिव्यक्ति है। इस बात को स्वीकार करते हुए ख़ुद दुष्यंत कुमार कहते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

मौजूदा समय में दुष्यंत कुमार सबसे ज़्यादा प्रासंगिक रचनाकारों में से एक हैं जिसका एक कारण उनका अपने समय के खुरदुरे यथार्थ को हू-ब-हू लिखना है।
सन् 1975-1977 में देश में आपातकाल की स्थिति थी जिस कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का विरोध समूचे देश में हो रहा था। श्रीमती गाँधी के इस निर्णय ने आम-अवाम की रोजी-रोटी की समस्या को और विकराल कर दिया था, लेकिन विरोध के बावजूद भी सरकार की तानाशाही से सभी भयभीत थे। दुष्यंत का यह शे’र  इंदिरा गाँधी के लिए ही था। आप भी देखें-

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सही मायनों में दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को ग़ज़ल होने का अहसास कराया है। ग़ज़ल आम आदमी की आवाज़, शोषितों का दर्द, निहत्थों का हथियार, भीड़ का नारा, बेरोजगारों की पुकार तथा आम जनता की उम्मीद भी हो सकती है, इसे दुष्यंत ने साबित कर के दिखलाया है।
वहीं ‘साये में धूप’ को पढ़ने के बाद दृढ़ विश्वास होता है कि आम-अवाम के प्रति जब भी सरकार की तानाशाही या उदासीनता बढ़ेगी, तब स्वतः उक्त संग्रह शोषितों का अदम्य हुंकार बनेगा। और यही ‘साये में धूप’ की प्रासंगिकता होगी।
निःसंदेह कालांतर में जब-जब हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा का स्वर्णिम इतिहास लिखा जाएगा, तब-तब व्यक्तिगत तौर पर दुष्यंत कुमार का नाम और उनका योगदान पक्के रंग की भाँति अमिट और प्रकाशवान होगा। अगर कहा जाए कि हिन्दी ग़ज़ल और दुष्यंत एक ही सिक्के के दो पहलू समान हैं तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।

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परिचय : डॉ. अविनाश भारती
प्राध्यापक, जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा (बिहार)
संपर्क : 9931330923

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