‘साये में धूप’में अभिव्यक्त दुष्यंत कुमार की सामाजिक चेतना
- वेदप्रकाश भारती
दुष्यंत कुमार, जिनका नाम हिंदी गजल के प्रथम गजलकार के रूप में जाना जाता है। जिन्होंने गजल को रोमानियत की धारा से अलग करके आम आदमी के जीवन से जुड़ी समस्याओं से जोड़ने का काम प्रमुखता से किया। दुष्यंत कुमार आदमी को जीने का तरीका सिखाते हैं। मानव को मानव से प्रेम करना तथा समाज में सही तरीके से जीने के लिए और अपना हक, अधिकार पाने के लिए एवं सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए क्रांति करना भी सिखाते हैं। दुष्यंत कुमार को शासन या सत्ता का नहीं बल्कि आम आदमी की चिंता है। वह आम आदमी की जो गरीब,किसान, मजदूर, छात्र,महिला आदि लोगों की चिंता है।इन लोगों का जीवन बेहतर हो। दुष्यंत मानवीय संवेदनाओं के साथ खड़े हैं। उनके सृजन का विषय अन्याय, विषमता, अत्याचार,शोषण, भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, सांप्रदायिकता, धर्मांधता आदि है।इनका गजल संग्रह ‘साये में धूप’(1975)है, जो बेहद लोकप्रिय है। दुष्यंत कुमार के कुछ शेर बहुत प्रचलित है। निदा फाजली ने दुष्यंत कुमार के लिए लिखा है कि “दुष्यंत के नजर उन युग के नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ नए तेवर की आवाज थी। जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानदगी करती है।” दुष्यंत मात्र 44 वर्ष के ही अल्प आयु में ही चले जमर के बावजूद भी हिंदी साहित्य में वो और उनकी कृति दोनों अमर हो गए एवं हिन्दी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं, जो आज भी प्रासंगिक है। दुष्यंत कुमार का लेखन हक और अधिकार के लिए उठने वाले आवाजों में गूंजते रहते हैं। दुष्यंत कुमार के गजल संग्रह ‘साये में धूप’इतना लोकप्रियता हासिल किया की मात्रा 47 वर्षों में 73वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसकी लोकप्रियता का इससे अंदाजा लगाया जा सकता है। दुष्यंत कहते हैं-
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।”1
दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां बदलाव के लिए, परिवर्तन के लिए लड़ाइयों में भाग लेने वाले या परिवर्तनकारी सोच रखने वाले के लिए प्रेरणा, हिम्मत और ताकत तथा रोशनी प्रदान करने वाली लाइनें है। विषमतावादी व्यवस्था के खिलाफ और समाज के लिए समानता का भाव रखने वाले का नाम दुष्यंत कुमार है। यह लाइन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए हथियार के रूप में काम आते हैं।
डॉ मोहन समकालीन कविता की संघर्ष-शीलता के संबंध में वे लिखते हैं “समकालीन कविता हर तरह की विषमताओं से लड़ती हुई कविता है। अंतर चाहे वर्ग का हो या वर्ण का या रंग का जो विषमताएं जीवन को झकझोर देती है, समकालीन कविता इनके खिलाफ खड़ी रहती है।”2 दुष्यंत कुमार की कविता समकालीन व्यवस्था से लोहा लेती है और आम जनता, किसान, मजदूर, छात्र के पक्ष में खड़ी है। दुष्यंत अपनी रचनाओं में समाज के यथार्थ चित्र को प्रस्तुत करते हैं और आम आदमी के मन तथा विचार में क्रांति के चिंगारी को जलाते हैं। इस देश की वही जानता है जो आजादी के बाद यानि की दशकों के बाद भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित रहा है। जिसका हक और अधिकार को लूटने की प्रक्रिया बनी हुई ही है और व्यवस्थामें कोई परिवर्तन नहीं आया है या यूं कहे की और अधिक ही लूट जा रहा है। उनकी स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को छीना जा रहा है या अभिव्यक्ति पर खतरा बढ़त ही जा रहा है।यहाँ के भोले-भाले जनता को सत्ता वर्ग यानि राजनेता ने उनके भावनाओं के साथ छल निरंतर करता ही रहता है, और अभी तक कार ही रहा है। दुष्यंत अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता के सोए हुए संवेदनाओं को जगाने का काम करते हैं। उनमें जोश और क्रांति के साथ एक दृष्टि प्रदान करते हैं। शोषक और पूंजीपतियों को मिलकर जड़ से उखाड़ फेंकने की ताकत देते हैं।ताकि समता, भाईचारा, प्रेम के साथ सोहार्दपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सके।
“कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला हिंदुस्तान है।
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर गजल सल्तनत के नाम एक बयान है।”3
भारत कठिन संघर्षों से और कई बलिदानों के बाद स्वतंत्रता प्राप्त किया। आज भी देश के अधिकतर जनता गरीबी, लाचारी और बेबसी की जिंदगी जीने को मजबूर है और जी रहा है।चंद प्रतिशत ही लोग जो धनवानों की गिनती में आते हैं और मानव जीवन के तमाम सुख-सुविधाओं को भोग रहे हैं। जितना भी सत्ता में आने वाले राजनीतिक पार्टियां हैं वो भी इस खाई को भरने में नाकाम साबित हुआ है। लगभग सभी राजनीति पार्टियों सिर्फ सत्ता पर बने रहने के लिए और शासन करने के लिए वो हर उपाय को अपनाते हैं जिससे उसकी शाषण बरकरार रहे तथा सत्ता बरकरार रहे। जनता भले ही क्यों ना हसिए पर और धकेल दिए जाएं।
ब्रिटिश हुकूमत के अन्याय, अत्याचार, शोषण और दमन से ही केवल भारतीयों को छुटकारा नहीं चाहिए था बल्कि एक सुंदर परिकल्पना था किदेश के सत्ता का बागडोर जनता के हाथों में हो। वर्तमान के साथ भविष्य भी सुनहरी और सुरक्षित हो पर यह एक नींद का सपना ही बन कर रह गया। लोकतंत्र तो है पर सिर्फ नाम का है धरती पर या हकीकत ठीक इसके विपरीत है। अदम गोंडवी अपनी गजलों में कहते हैं-
“सौमें सत्तरआदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर हाथ रखकर कहिए देश क्या आजाद है?
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आँकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ फुटपाथ पर आवाद है।”4
तथा
“तुम्हारे फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर यह आँकड़े झूठे हैं येदावा किताबी है।
उधर जम्हूरियत के ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर पर्दे के पीछे पर बर्बरीयत है नबाबी है।”5
भारत देश की यथार्थ या सच्ची स्थिति पर अदम गोंडवी की रचनाएं बिल्कुल सटीक और फिट बैठती हैं। अदम गोंडवी भारत के सच्ची तस्वीरों को जनता या पाठक के सामनेप्रस्तुत करते हैं।अदम गोंदवी दुष्यंत के परंपरा के गजलकार हैं।हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत के बाद अदम गोंदवी का ही नाम आता है और दुष्यंत की परंपरा को बरकरार रखते हुए उनके विरासत को आगे बढ़ने का काम अदम गोंडवी करते हैं। भारत के सच्ची तस्वीर दुष्यंत के गजलों में उभर कर सामने आता है और अभिव्यक्त होता है। दुष्यंत कुमार खुद कहते हैं-“मैंने अपनी तकलीफ को उस अदद तकलीफ जिससे सीना फटने लगता है ज्यादा से ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कहने के लिए गजल कही हैं।”6जनता की बदहाली पर दुष्यंत कुमार लिखते हैं-
“न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब है इस सफर के लिए
खुदा नहीं न सही, आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो हो नजर के लिए।”7
दुष्यंत का यह कटाक्ष भारत के शासन व्यवस्था पर है और राजनीति नेता पर भी है,जो चुनावी भाषण खूब आत्मीयता के साथ करते हैं। मगर जब करने की बारी आती है तब वह गायब ही हो जाते हैं या गुमशुदा हो जाते है और गुमशुदा की तरह नेता जिंदगी जीने लगते हैं तथा जनता भी उसकी नजर में गुमशुदा हो जाते हैं। जनता और नेता एक दूसरे के नजर में ऐसे गुमशुदा हो जाते हैं कि दोनों एक दूसरे को 5 वर्षों तक नजर ही नहीं आते हैं। सत्ताधारी नेता जनता को पुनः ढूंढने में 5 वर्ष लग जाता है, इस बीच जनता तमाम मौलिक अधिकारों, आधारभूत आवश्यकताओं, जरूरतों, अपना मूल्य, आत्मसम्मान और अस्मिता से वंचित रहते हैं या यह सब सिर्फ शब्द है या इस शब्द का कोई मायने ही नहीं रह जाता है। दुष्यंत आगे कहते हैं-
“यहां तक आते-आते सूख जाती है कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहर हुआ होगा।
यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा।”8
किस तरह भारत के आजादी के कई वर्षों के बाद यानी आज भी वही हाल है जो आज से कई दशक पहले या देश के गुलामी के समय में था। स्वतंत्रता के बाद भी कई विडंबना देखने को मिलता है। विश्वसनीय, भ्रष्टाचारी, नौकरशाही, धोखा आदि। जनता को यहाँ सिर्फ योजना के नाम पर छला या ठगा जाता है। योजना तो जरूर शुरुआत होता है मगर वह सिर्फ फाइलों पर ही। योजना के सारे पैसे फाइलों में ही खत्म हो जाती है और जनता तक सिर्फ इसका खबर पहुंचता है। इतना ही नहींअधिकांश लोग बोलने वाले, पूछने वाले गूंगा हो जाते हैं या वह उस भ्रष्टाचार के बहती नदी में हाथ धो लेते हैं या डर के मारे कुछ बोलते ही नहीं है। अधिकांश बोलने वाले लोग या सवाल करने वाले लोग इस अहम मुद्दे और सवाल को जरूरत ही नहीं समझते हैं। खुदा के नाम पर लूट होता आया है और खुदा के नाम पर जनता को मूर्ख और बेवकूफ बनाकर उसके हक और अधिकार को लूटा जा रहा है। जनता को लूटने वाले लुटेरा सिर्फ अपना पेट और अपना घर को भरते रहते हैं। जनता को वैसे ही छोड़ उसी हालत में छोड़ दिया जाता है जिस बदहाली और लाचारी एवं गरीबी में जीते रहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था और शासन व्यवस्था पर तंज करते हुए कहते हैं-
“भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आज दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दा।”9
दुष्यंत सामाजिक परिस्थितियों और आम आदमियों के यथार्थ से जुड़े विषयों पर लेखनीचलाते हैं जो समाज में भयावह रूप ले रही है। संवेदनहीनता और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास पर मुखर होकर कहते हैं। यहां जनता भूख से त्रस्त है, रोटी के लिए गुहार लगा रहा है। अपना हक और अधिकार मांग रहा है मगर सत्ता में बैठे शासक को कोई परवाह ही नहीं है। वो सिर्फ दिल्ली में सिर्फ बहस चला रहे हैं या कर रहे हैं। शायद दिखाने के लिए ही उसका बहस है बल्कि उसका कोई तत्काल उपाय नहीं कर रहा है। यह सब हालात देखकर त्रस्त होकर दुष्यंत कहते हैं-
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।”10
इन पंक्तियों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दुष्यंत कुमार आम लोगों के पीर से कितनी गहरी लगाव रखते हैं। उनके सुख-दुख को गहराई से अनुभव करते हैं और उनके पक्ष में हमेशा खड़ा रहते हैं। दुष्यंत ऐसे सुखी समाज की कल्पना करते हैं जहां न कोई भेदभाव, छुआछूत,शोसन, अत्याचार, उत्पीड़न, गरीबी और अभाव में कोई भी लोग जीवन जीने को मजबूर ना रहे। सभी सुखी से अपना जीवन यापन करें और सभी को अन्न मिले, भरपेट भोजन मिले, सभी स्वस्थ रहे इसलिए तो दुष्यंत कुमार इस दर्द और पीर के पर्वत को पिघला देना चाहते हैं। सुख और हंसी-खुशी की गंगा को बाहर निकाल देना चाहते हैं यानि बहा देना चाहते हैं ताकि उसके जल से हंसी खुशी सिंचित होकर फले फुले। यह सभी बातें बात ना होकर हकीकत में भी बदलाव हो। इस समाज के लोग इस देश की सूरत को बदल दिया जाए। इस बदलाव में वह सभी जनता को शामिल करना चाहते हैं और इस बदलाव के चिंगारी को हमेशा जलते हुए छोड़ना चाहते हैं।
संदर्भ सूची-
- साये में धूप, दुष्यंत कुमार राधा कृष्ण प्रकशन, दिल्ली 2022, पृष्ठ 30
- समकालीन कविता की भूमिका डॉक्टर मोहन पृष्ठ संख्या 127
- साये में धूप, दुष्यंत कुमार राधा कृष्ण प्रकशन, दिल्ली 2022, पृष्ठ 57
- धरती की सतह पर, अदम गोंदवी, अनुज प्रकाशन 2023 पृष्ठ संख्या 44
- अदम गोंदवी,समय से मुठभेड़, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2020, पृष्ठ 59
- संपादक विजय बहादुर सिंह दुष्यंत रचनावली भाग 2 किताब घर प्रकाशन नई दिल्ली द्वितीय संस्करण 237
- साये में धूप, दुष्यंत कुमार राधा कृष्ण प्रकशन, दिल्ली 2022,पृष्ठ 13
- वही, पृष्ट 15
- वही, पृष्ट 21
- वही, पृष्ट 30
…………………………………………………
वेदप्रकाश भारती, शोधार्थी, ल. ना. मि. वि. दरभंगा
मो नं 9709771436