श्रीरंग शाही की दृष्टि में गिरिजा कुमार माथुर :: डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री

श्रीरंग शाही की दृष्टि में गिरिजा कुमार माथुर

-डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री

गिरिजा कुमार माथुर तार सप्तक के कवि थे. देश की आजादी के बाद जिस नई कविता ने अपना पांव पसारना शुरू किया, उसमें गिरजा कुमार माथुर शमशेर, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र और स्वयं अज्ञेय का नाम उल्लेखनीय है. नई कविता ने जहां नए शब्द गढ़े वहीं नए प्रतीक और उपमा को भी तलाश किया. मुक्तिबोध और अज्ञेय की जहां भाषा क्लिष्ट थी, वहीं गिरिजा कुमार माथुर की भाषा में पर्याप्त सरसता और सरलता मिलती थी. माथुर पर कई साहित्यकारों ने लिखा है, लेकिन उसमें डॉ.श्रीरंग शाही का गिरिजा कुमार माथुर पर लिखा गया लेख काफी चर्चा में रहा. उन्होंने अपने लेख में माथुर और शमशेर को याद करते हुए लिखा
शमशेर बहादुर सिंह के महा प्रयाण के बाद आंसू सूखे भी नहीं थे, इसी बीच माथुर जी भी हमसे विदा हो गये। पिछले दिनों माथुर जी को विडला फाउन्डेशन का द्वितीय उत्कृष्ट व्यास पुरस्कार से सम्मानित किया गया था इससे पूर्व व्यास पुरस्कार डॉ० नगेन्द्र और डॉ० शिव प्रसाद सिंह को मिल चुका है. माथुर की काव्य शैली का अनुसंधान करते हुए वह आगे लिखते हैं-
श्री माथुर की कविताओं में प्रेमिल भाव और मांसल अनुभूतियां मिलती हैं। 1937-38 में माथुर का कवि जीवन प्रारम्भ होता है ,जब छायावाद का अंतिम चरण था और प्रगतिवाद का आगमन हो गया था। शिव मंगल सुमन, डॉ० बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल, नरेन्द्र शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर के साथ हिन्दी काव्य-गगन में पदार्पण करते हैं.
गिरिजा कुमार माथुर की रचना शैली पर विचार करते हुए श्रीरंग शाही उनका जायजा लेते हैं, और कहते हैं कि माथुर की कविता पुस्तक ‘कल्पान्तर’ को 1988 में भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता ने पुरस्कृत किया था. 1943 में अज्ञेय जी ने तार सप्तक प्रथम खण्ड का सम्पादन किया था और इसके सात कवि थे-गिरिजा कुमार माथुर, राम विलास शर्मा, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, मुक्ति-बोध, नेमिचन्द जैन और भारत भूषण अग्रवाल.
श्री रंगशाही गिरिजा कुमार माथुर को प्रयोगवाद के संस्थापक के तौर पर देखते हैं, जब के पूरे प्रयोगवाद में अज्ञेय को सबसे बड़ा स्थान मिलता है. श्री रंगशाही का विचार है कि
श्री गिरिजा कुमार माथुर प्रयोग-वाद के संस्थापक कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं. उन्होंने माथुर जी को माथुर जी को न रोमानियत और यथार्थ का कवि माना जाता है. यह सच भी है उदाहरण के लिए विजय कुमार माथुर की एक कविता चूड़ी का टुकड़ा देखा जा सकता है-

कैसे हुए बंधन में चूड़ी का झड़ जाना
निकल गई सपने जैसी वे रातें
याद दिलाने रहा सुहाग भरा यह टुकड़ा…

अपने निबंध में वह डॉ० नामवर सिंह के उसे विचार को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने माथुर जी को छायावादोत्तर काल का प्रमुख कवि माना है. श्री माथुर भारतीय प्रशासनिक सेवा के भी अधिकारी थे और दूरदर्शन के उप महानिदेक पद से अवकाश ग्रहण किया था. गिरिजा कुमार माथुर में जहां सिर्फ प्रयोगवाद की प्रवृत्ति देखी जाती थी, वही श्री रंगशाही ने पहली बार उनकी कविताओं में छायावाद का अक्स भी देखा. श्रीरंग शाही लिखते हैं – माथुर में छायावादी संस्कार भी प्रबल था शिल्प एवं प्रयोग की दृष्टि से माथुर का काव्य छायावाद युग से आगे बढ़ता प्रतीत होता है. माथुर जी को प्रारम्भिक रचनाएँ ‘वीणा’ और ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित हुई थीं. 1941 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘मंजीर’ का प्रकाशन हुआ और 1988 में ‘साक्षी है वर्तमान का प्रकाशन होता है। ‘नाश और निर्माण’, ‘धूप के धान’ शिला पंख चमकीले’, ‘जो बांध नहीं
सका’ और ‘अखिरी नदी की यात्रा’ आपके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। ‘नाव और निर्माण’ का प्रकाशन 1946 में होता है और इस संग्रह की कविताओं में छायावादी रोमानियत और प्रगतिशील चेतना मिलती है. श्री रंगशाही का यह कथन भी सत्य है. उनकी कई कविताएं उदाहरण के लिए प्रस्तुत की जा सकती है. जिसमें छायावाद की प्रतीकात्मकता, और व्यंजनात्मक शैली दिखती है. आप भी उनकी कुछ पंक्तियां देखें –

दो काली आंखों से चमकीली
एक रेडियम घड़ी सुप्त कोने में चलती
सुनेपन के हल्के स्वर सी…

……….
हो चुके हैं
सभी प्रश्नों के उत्तर पुराने
खोखले हैं.

आप देखेंगे कि श्री रंगशाही का यह कथन सत्य प्रतीत होता है. क्योंकि यह कविता प्रतिकों और बिंबो में बात करती है, जो छायावाद का गुंडा है. छायावाद में जैसे प्रकाश और अंधेरे की बात होती है. वैसे ही माथुर जी की कविताओं में यह बार-बार शब्द आता है. एक दो और कविताएं देखी जा सकती है –

रहे सभी अंधी है
ज्यादातर लोग जागते हैं
…….
गंगा की गोरज लहरों से
जीवन का वह रंगीन चाँद
जिसके उजाले बिना हुआ है जग निर्धन
जाहिर है प्रयोगवादी कवि माथुर की यह कविताएं छायावाद की अधिक नजदीक दिखाई देती है. डॉ.रंगशाही को माथुर की कविताओं में खास सौंदर्य दिखाई देता है. वह इस निबंध में आगे लिखते हैं.
सौन्दर्यानुभूति की दृष्टि से माथुर के काव्य की अपनी विशिष्टता है। गेहूँ की बाली जैसी और कुसुमित मृगाल जैसी देह का माथुर जी ने चित्रण किया है. उदाहरण के लिए उन्होंने माथुर जी की कविताएं भी प्रस्तुत की है. आप भी देखें

“आज है केसर रंग रंगे हैं वन
रंजित शाम की फागुन की
खिली पीली काली सी
केसर के वसनो में छिपा तन
सोने की छांह सा गोरे कपोलों पर
होले से आ जाती पहिले ही पहिले के
रंगीन चुम्बद की सी ललाई।”
माथुर की प्रसिद्ध कविताओं में से एक कविता धूप की धन है. इसमें जहां प्रेम की कविताएं हैं वहीं, जीवन के विविध रंग भी घुले मिले हैं. श्री रंगशाही ने इसका अनुशीलन करते हुए लिखा है –
‘धूप के धान’ की कविताओं में प्रणय-बोध और यथार्थ बोध का संगम मिलता है। डॉ० जगदीश गुप्त ने ठीक ही कहा है कि झुकी हुई चेतना, प्रगाढ़ गोतिमयता, वस्तु को रूपायित करने वाली व्यंजक बिम्ब- योजना माथुर की कविता का सशक्त पक्ष है। ‘जो बंध नहीं सका’ काव्य कृति में माथुर की चेतना विभक्त मिलती है। माथुर की एक प्रसिद्ध किताब आखिरी नदी की यात्रा भी है. इसमें कई की कविताएं हैं. श्री रंगशाही की दृष्टि में इस काव्य ग्रंथ में कवि माथुर की मान्यता है कि संसार के सारे रिश्ते झूठे हैं और मात्र प्यार का सम्बंध और उसकी गंध ही शाश्वत है.कवि जीवन के सारे अस्तित्व को प्रेम के उपर अवलम्बित मानता है. कवि का कहना है कि हर युवती प्यार है, हर शरीर मस्ती है.कवि की दृष्टि में प्रेम जीवन की अनिवार्यता है –

“तुम्हें नहीं मालूम
कि प्यार के लिए उम्र नहीं होती
कोई वक्त, कोई जगह
कोई रोक-टोक नहीं होती।
तुम्हें नहीं मालूम
तुम्हारी देह का कुहुकता स्वाद
जो तुम मन के भीतर से उड़ेल कर
जबतक किसी को दे नहीं पायी
उसमें कितनी शराब है
कितनी ज्यादा संजीवनी है।
जिसे पा कर उम्र वापस मिल जाती है।”

वास्तव में अगर हम देखें तो माथुर की कविताएं प्रेम की गहरी पड़ताल करती हैं – जैसे उनकी यह कविताएं

याद भारत मन खो जाता है
चने की दूरी तक आती है
थकी आहट में मिलकर
…….

तीन अजनबी साथ चलने लगे
अलग दिशाओं में
और यह न ज्ञात हुआ
इनमें कौन मेरा है
……..
छाया मत छूना
मन होगा दुख दूना
दुविधा हत साहस है
लिखना है पथ नहीं…

श्री रंगशाही मानते हैं कि – कवि माथुर की प्रेम परक रचनाओं में शरीर और मन दोनों की आवाज सुनाई पड़ती है.देह धर्म की ललक भोगवादी दृष्टि भी माथुर जी की रचनाओं में मिलती है. वर्तमान युग में नई कविता के तीन मूर्धण्य कवि थे शमशेर बहादूर सिंह, केदारनाथ सिंह और गिरिजा कुमार माथुर ।शमशेर और माथुर हिन्दी नई कविता को विलखता छोड़कर चल बसे और आज डॉ० केदार नाथ सिंह अपने को एकाकी अनुभव कर रहे हैं. गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं में यथार्थ के दर्शन भी होते हैं. कवि को अचरज है कि सच को सच कहना समाज कोकैसे मुश्किल में डाल देता है –

“हूँ प्रताड़ित
क्योंकि प्रश्नों के नये उत्तर दिये हैं,
है चरम अपराध
क्यों मैं लीक से इतना अलग हूँ

कवि को हर जगह एक आहट सुनाई पड़ती है. और वह आहत है जीवन के हर एक स्थितियों में सत्य का दामन थामे रहना. श्री रंगशाही माथुर के काव्य का दर्शन तलाशते हुए लिखते हैं-
माथुर जी के काव्य का मूल स्वर प्रणय, पीड़ा, निराशा और वेदना का है.कवि में छायावादी रोमांस की प्रवृत्ति है.नारी के रुप-सौंदर्य, उसकी मधुर दीप्ति के प्रति कवि में एक ललक है. कवि को रंगीन शाम में रेशम के वस्त्र पहने हुई गोल गोरी रेशम की चूड़ियां पहनी हुई नारी की याद आती है।

‘चूड़ी का टुकड़ा’ नाम की कविता में कवि की प्रणय-भावना मिलती है। कवि प्रणय की भावना से मदहोश हो जाता है।

“पूस की ठिठुरन भरी इस रात में
कितनी तुम्हारी याद आयी।
याद आये मिलन वे
मसली सुहागिन सेज पर…
ऐसी ही माथुर की एक अन्य कविता है –
“आज जोत की रात पहरुए सावधान रहना
खुले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना
शोषण से मृत है समाज कमजोर हमारा घर है
किन्तु, आ रही नई जिन्दगी यह विश्वास अमर है
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्री रंगशाही ने अपने एक छोटे से निबंध में माथुर की काव्य कला का जीवंत वर्णन किया है. सिर्फ माथुर जी नहीं आधुनिक हिंदी के कई कवियों नाटककार और कहानीकार पर वह अपनी मौलिक दृष्टि डालते हैं. इसलिए हिंदी साहित्य में एक सुलझे हुए आलोचक के तौर पर उनकी गिनती होती है.

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