‘ग़ज़ल एकादश’ की ग़ज़लें आम आदमी के करीब
– विनय
ग़ज़ल एकादश एक ऐसा फूलों का गुलदस्ता है, जिसमें विभिन्न तेवर की ग़ज़लें संकलित हैं. इसका संपादन ग़ज़लकार डीएम मिश्र ने किया है. यह कहना मुनासिब होगा कि उन्होंने ग़ज़लों के चयन में पारदर्शिता बरती है. कुछेक ग़ज़लों को छोड. दें तो अधिकांश ग़ज़लें आम आदमी के करीब है. इन ग़ज़लों में मेहनतकश आदमी का जीवन दिखता है़. सुबह से शाम तक रोटी के लिए पसीना बहाने वाले व्यक्ति का दर्द, उसकी संवेदना और उसके जीवन-लय को ग़ज़लों में समाहित किया गया है. राजनीति और धर्म से संचालित समाज की वास्तविक तस्वीर और बेबस जिंदगी का चित्रण पुस्तक में बखूबी किया गया है. संग्रह में 11 ग़जलकार हैं. सभी की ग़ज़लों में देश, समाज, गांव और शहरों की पीड़ा मुखरित हुई है.
पुस्तक के पहले क्रम में कमल किशोर श्रमिक की ग़ज़लें हें. डॉ प्रभा दीक्षित की शब्दों में कहें तो वर्तमान व्यवस्था के उपभोक्तावादी, बाजारवादी, भूमंडलीकरण सांस्कृतिक परिदृश्य में कमल किशोर श्रमिक की ग़ज़लें हमें आश्वस्त करती हैं कि अभी हिंदी साहित्य में जनपक्षधर मूल्यों की साख बाकी है़. शेर देखें –
खुदकुशी के दर्द को अल्फाज देने के लिए
कोई भी कॉलम नहीं है अपने अखबारों के पास
इस शेर में मीडिया की तल्ख सच्चाई चित्रित हुई है. आम आदमी हाशिए पर है. परिस्थतियों के कारण आम आदमी की मौत सिर्फ एक खबर बन कर रह जाती है. मौत के पीछे की सच्चाई को मीडिया नहीं दिखाना चाहता. यूं कहे तो मीडिया के हाशिए पर भी देश के तमाम मेहनतकश अवाम के लिए जगह नहीं है.
जो भीड़ में गाती है मजदूरों की बस्ती में
उस श्रमिक के गजल के अंदाज निराले हैं
इस शेर में श्रमिक जनपक्षधरीय गजल की बात करते हैं. जब मेहनतकश लोगों के मुंह से खुशी का कोई गीत या ग़ज़ल निकलती है तो छंद और बहर का व्याकरण खोजने की जरूरत नहीं होती. उल्लास से भरे गीतों का सौंदर्य खुद में एक व्याकरण है.
पुस्तक के दूसरे क्रम में सुरेंद्र श्लेष को रखा गया है. शैलेंद्र चौहान कहते हैं कि श्लेष जी का तेवर व्यवस्था, सत्ता की ज्यादतियों, नाकामियों और बदगुमानियों के खिलाफ सख्त है. इनके शेर पर एक नजर डालें –
जबसे अब्बू गए काम पर
रोटी नहीं बनी है घर में
छोटे बहर की शेर, लेकिन मेहनतश परिवार की सच्चाई. मेहनत-मजदूरी के लिए घर से निकलने वाले लोगों को काम नहीं मिलता तो परिवार के लोगों को निवाले के लाले पड़ जाते हैं. अब्बू के घर से जाने के बाद चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ है. रोटी तभी बनेगी जब अब्बू पैसे भेजेंगे.
दुनिया हिला दी धर्म ने रुतबा दिखा दिया
मौका मिला तो आदमी जिंदा जला दिया
धर्म आदमी को आदमी से किस तरह बांट रहा है. इसे सुरेंद्र श्लेष ने बड़ी खूबसूरती से रखा है. कार्ल मार्क्स से धर्म को अफीम कहा था, यानी एक ऐसा नशा जो लोगों को संवेदना शून्य बना देती है. सुरेंद्र श्लेष के शेर में भी वैसा ही नशा दिखता है. आज के संदर्भ में यह माकूल शेर है.
पुस्तक के तीसरे क्रम में रामकुमार कृषक की गजलें रखी गयी हैं. डॉ अनिल राय कहते हैं कि तमाम प्रतिकूलताओं और उपेक्षाओं के बाद भी आज ग़ज़ल को हिंदी में थोड़ी बहुत जो भी स्वीकृति देखने को मिल रही है, उसके पीछे कृषक जी जैसे काव्य-साधकों की भूमिका है. कृषक जी की नजर बड़ी बारीक है. शेर देखें –
खोदोगे तो मंदिर-मस्जिद की दीवारें निकलेंगी
बुनियादों में दफ्न हुईं जो तकरारे निकलेंगी
मंदिर-मस्जिद के विवाद पर कृषक जी कहते हैं कि यह कहानी आज की नहीं है. बुनियाद ही उलझन भरा है. जितना कुरेदा जाएगा, तकरार उतनी ही बढ़ेगी. जो चीजें दफ्न हो चुकी है, उसे नहीं कुरेदना चाहिए. हाथ कुछ आएगा नहीं, नफरते फैलती जाएगी.
देश दिल्ली की अंगुली पकड़ चल चुका
गांव से पूछ लें अब किधर चलें
सरकारी योजनाओं में गांवों का हाल किस से छिपा नहीं है. महानगर की चकाचौंध से ही विकास का पैमाना मापा जाता है. सरकार विकास के नाम पर शहरों को स्मार्ट सिटी बना रही है, लेकिन गांवो के सरकारी स्कूल अभी भी खुले में चल रहे हैं. पीछे छूटते गांवों की पीड़ा इस शेर में व्यक्त हुई है.
पुस्तक के चौथे क्रम में राम मेश्राम की ग़ज़लें रखी गयी है. इनके बारे मे नचिकेता कहते हैं, राम मेश्राम की ग़ज़लें अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों से सिर्फ लड़ती ही नहीं है, संघर्षशील विचारधाराओं में अंतर्निहित कुंठाओं से भी संघर्ष करती हैं. राम मेश्राम का शेर देखें –
नेता के खून सने तलवों को चाटता
साधन-सुविधाओं में बिका हुआ मीडिया
मीडिया की सच्ची तस्वीर इस शेर में अभिव्यक्त हुई है. आजादी के बाद से मीडिया के मूल्यों में लगातार गिरावट आ रही है. अब मीडिया शुद्ध व्यवसाय है, जिसका मतलब पैसा, पैसा और पैसा है. मीडिया पैसे लेकर सरकार के पक्ष में जनमत तैयार करती है. आज की मीडिया समाज का आइना नहीं, बल्कि सरकारी भोंपू है. इसमें वही प्रसारित और प्रकाशित किया जाता है, जो सरकारें चाहती है.
आप दंगे भी करें, आप हुकूमत भी करें
वोट हम देंगे कि झुंझलाने से होता क्या है
वोट देकर जनता किस तरह ठगी जाती है, इसका उदाहरण इस शेर में मिलता है. हुकूमत सिर्फ वोट लेना जानती है. ठगा हुआ व्यक्ति सिर्फ घटित हुई चीजों को देख सकता है. उसके सामने फिर कोई विकल्प नहीं होता. झेलना और भोगना उसकी नियति बन जाती है.
पुस्वक के पांचवें क्रम में डीएम मिश्र की गजलें हैं. इनके बारे में डॉ जीवन सिंह कहते हैं, डीएम मिश्र अपने अंदाजे बयां के कारण सतत उपस्थिति दर्ज कराते हैं. उनके यहां भाषा की तरलता और सरलता दोनों है. भाषा में कहीं गत्यरोध व अस्पष्टता नहीं है
खबर वो नहीं जो दिखायी गयी है
उसे ढूंढ़िए जो छुपायी गयी है
डीएम मिश्र भी मीडिया पर चोट करते हैं. वे कहते हैं, दिखायी गयी चीजें ही खबर नहीं होती. हमें वह ढ़ूंढ्ना है, जो हमसे छुपायी गयी है. असली खबर वही होती है. इसे एक साजिश के तहत हमसे छुपाया जाता है, ताकि हम अपने सत्यता से अवगत नहीं हो पाए
देश के हालात मेरे बद से बदतर हो गए
जो मवाली, चोर, डाकू थे मिनिस्टर हो गए
इस शेर में अपराध का राजनीतिकरण का बखूबी चित्रण किया गया है. देश के हालात किस तरह बद से बदतर हो रहे हैं, इसे डीएम मिश्र ने बखूबी रखा है. अब संसद में अच्छे और शिक्षित लोग नहीं आते. जिनका आपराधिक इतिहास रहा है, वहीं देश के कर्णधार बने बैठे हैं.
पुस्तक के छठे क्रम में हरेराम समीप की ग़ज़लें हैं. डॉ वरुण कुमार तिवारी कहते हैं कि हरेराम समीप की ग़ज़लें प्रगतिशील चेतना की ग़ज़लें हैं. जिनके माध्यम से समीप ने स्वातंत्र्योत्तर भारत में उपजी अंधी राजनीति, सत्ता का स्वार्थ तंत्र, धार्मिक उन्माद, विद्वेष और शोषण के विरुद्ध अपना स्वर दिया है. शेर देखें –
ये जो संसद में विराजे हैं कई गोबर गणेश
और कब तक हम उतारें इन सभी की आरती
संसद में चुन कर जाने वाले हमारे प्रतिनिधि किस तरह के हैं, इसका उदाहरण इस शेर में दिखता है. इन्हें गोबर गणेश की संज्ञा दी गयी है. यानी जिन्हें हम चुन कर भेजते हैं, वे किस तरह के हैं, इसका सटीक विश्लेषण इस शेर में मिलता है
तुम्हें अनाज शहर में तो मिल रहा है रोज
पता है गांव में कैसे किसान जिंदा हैं
किसानों की व्यथा इस शेर में अभिव्यक्त हुई है. अमीरों के गोदाम खाद्यान्न से भरे हैं, लेकिन अन्न उपजाने वाले की स्थिति क्या है, इसे सहज ही समझा जा सकता है. खेतों में पसीना बहा कर उत्पादन करने वाले किसानों की स्थिति बदतर है. इन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती.
पुस्तक के सातवें क्रम में शिव कुमार पराग की ग़ज़लें हैं. सलीम तन्हा कहते हैँ कि शिव कुमार पराग की ग़ज़लें बहुत ही सहज और सरल भाषा में कही गयी ग़ज़लें हैं, जिन्हें हिंदुस्तानी जबान की ग़ज़लें भी कह सकते हैं. शेर देखें –
सूखा, बाढ़, अकाल चंद लोगों के लिए खुशी का दिन
माफी, राहतकोष, जांच-पड़ताल हमारी आंखों में
सूखा, बाढ़ और आपातकाल कुछ लोगों के लिए वरदान साबित होता है. कागज पर मुआवजे का खाका खींचने वाले अधिकारियों के लिए यह उत्सव है, जिसमें रुपयों की बारिश होती है, जिन्होंने आपदा झेला है, कोई उनसे पूछे कि वै कैसे जीवन-बसर कर रहे हैं.
रोजी रोटी के, कपड़े-लत्ते के जटिल सवाल लिए
बैठ गया है फिर आकर बैताल हमारी आंखों में
जीवन के लिए जरूरी चीजें आम आदमी को मुहैया नहीं हो रही है. आजादी के इतने वर्षों बाद भी लोग रोजी-रोटी के लिए भटक रहे हैं. रोजगार नहीं होने का दंश क्या होता है, कोई उनके परिवार से पूछे. शिव कुमार पराग ने आम लोगों की परेशानियों को इस शेर में अच्छी तरह व्यक्त किया है.
पुस्तक के आठवें क्रम में प्रभा दीक्षित की ग़ज़लें हैं. इनके बारे में सुशील कुमार कहते हैँ कि प्रभा की ग़ज़लों में दुष्यंत की भाषाई तरलता नहीं है, न ही अदम की आक्रोश शैली, लेकिन सबसे बड़ी और अच्छी बात यह है कि इन्होंने अंतर्वस्तु के अनुरूप अपनी भाषा स्वयं विकसित की है, जिसमें ग़ज़ल की पाकीजगी और सोणापन दोनों है. शेर द्रष्टव्य है –
यहां हिन्दू, मुसलमां, सिक्ख, ईसाई तो मिलते हैं
मिले कुछ आदमी भी क्या कहें, गिनती में कम निकले
धर्म और जाति ने आदमी को किस तरह अलग किया है, इसे प्रभा दीक्षित ने अच्छी तरह समझा है. यहां इंसान से पहले आदमी की धर्म और जात है. मुकम्मल इंसान मिलना मुश्किल है. सभी के अपने-अपने खेमे हैं. यही सच्चाई है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.
इज्जत से अस्मत तक नफरत से दहशत तक
अब क्या क्या बेचोगे अपने बाजार में
बाजार में हर चीज बिकाऊ है, इज्जत और नफरत भी बिक रही है. जैसे-जैसे व्यक्ति की संवेदना ठूंठ होती गयी, बाजार का विस्तार होता गया. हम अपने स्वार्थ के लिए आज कुछ भी बेच और खरीद सकते हैं. आज के हालात की सच्ची तस्वीर इस शेर में अभिव्यक्त हुई है.
पुस्तक के नौवें क्रम में दिलीप दर्श की रचनाएं हैं. कौशल किशोर कहते हैं कि हिंदी के जिन युवा ग़ज़लकारों ने आम आदमी के दुख-दर्द और मनोदशा को अपने कहन का विषय बनाया है, उनमें दिलीप दर्श एक उभरता हुआ नाम है. शेर देखें –
सीढ़ियां संसद की कितनी है चमत्कारी कि देख
सीढ़ियां चढ़ते-उतरते ही कमाई हो गई
आज के नेताओं और जन प्रतिनिधियों पर यह शेर बिल्कुल सटीक बैठता है. चुनाव जीतने से पहले समाज और देश सेवा का संकल्प लेने वाला व्यक्ति संसद में जाने के साथ ही मालामाल हो जाता है. यह देश की राजनीति का विद्रूप चेहरा है, जिसे देश की अवाम जानती-समझती है. शायर ने बिल्कुल सटीक चित्रण किया है.
झोपड़ों में बैठ पत्तल पे वो खाने आ गया
कौर पहली क्या उठी, फोटो खिंचाई हो गई
इस शेर में भी नेताओं के दूसरे चेहरे को दर्शाया गया है. गरीब लोगों की संवेदना से किस तरह खेल किया जाता है, ये कोई इन नेताओं से सीखे. गरीबों की झोपड़ियों में जाकर उनके साथ भोजन करना महज एक दिखावा होता है़. अखबार में फोटो छपवा कर ये खुद को जनता का हमदर्द बताते हैं, लेकिन असलियत कुछ और होती है.
पुस्तक के दसवें क्रम में भावना की गजलें रखी गयी है. इनके बारे में विज्ञान व्रत लिखते हैं हिंदी ग़ज़लों की दुनिया में डॉ.भावना का नाम उनके साहित्यिक योगदान के कारण किसी परिचय का मोहताज नहीं है. डॉ.भावना ने अपने रचनात्मक नैरन्तर्य के बल पर ही एक खास मुक़ाम हासिल किया है. एक संवेदनशील रचनाकार होने के साथ-साथ डॉ.भावना अपने परिवेश के प्रति भी जागरूक भी हैं तथा रचनात्मकता के लिए प्रतिबद्ध भी. एक साहित्यकार की प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होना स्वाभाविक है. शेर देखें –
अफसरशाही, सत्ताधारी सब डूबे
घूस बनी है ऐसी दलदल क्या बोलूं
डॉ भावना ने छोटी बहर की गजल में हर आदमी की पीड़ा को आवाज दी है. एक शेर में ही देश की स्थिति स्पष्ट हो गयी है. देश में अफसरशाही किस हद तक हावी है, इसे बताने की जरूरत नहीं है. भ्रष्टाचार एक ऐसी हकीकत है, जिसकी चक्की में हर आदमी पिस रहा है. डॉ भावना ने बहुत ही सधे शब्दों में व्यवस्था के सच को आईना दिखाया है.
गंध होती क्या है बदन की शख्स वह कह पाएगा
छांव को जो आशियाना टांकता है धूप में
इस शेर में भी डॉ भावना ने ऐसे शख्स के दर्द को रखा है, जिसे दो वक्त की रोटी पाने के लिए अपना खून-पसीना बहाना पड़ता है. सुविधासंपन्न लोग जब एसी में आराम फरमाते हैं तो मजदूरी करने वाला व्यक्ति धूप में अपना खून जलाता है. खुद धूप में रहकर दूसरों के लिए छांव टांकने वाला मजदूर हमारी व्यवस्था का यथार्थ है.
पुस्तक के ग्यारहवें क्रम में पंकज कर्ण की रचनाएं हैं. इनके बारे में डॉ भावना कहती हैं कि डॉ पंकज कर्ण की ग़ज़लों में यथार्थ का संशय लेश-मात्र भी नहीं है बल्कि इन ग़ज़लों में ऐसी विलक्षणता है जो बरबस पाठकों को शहर एवं गांव की चेतना में डुबो देता है एवं जीवन-जनित व्यावहारिक मर्म को उजागर करता है. ग्राम्य-जीवन की सजीवता से पूर्ण इनकी ग़ज़लों में अपनी ज़मीन की सोंधी महक है जो मन को स्पंदित करती है.
चमकती धूप, सूरज, चांद तारे, फूल की खूशबू
हम अपने गांव में ऐसी विरासत छोड़ आए हैं
शायर ने गांव की सहज संवेदना को बड़ी खूबसूरती से अपनी ग़ज़ल में ढाला है. गांव से शहरों में पलायन से अपनी जड़ों से कटने की पीड़ा वही समझ सकता है, जो गांव की मिट्टी में पल-बढ़ कर चेतना पायी हो. डॉ पंकज कर्ण का यह शेर मन को छूता है.
वो सियासी हैं वो बातों को बदल कहते हैं
हम तो बस भूख बेबसी को गजल कहते हैं
सरकारें कुर्सी के लिए जनता को बरगलाए, लकिन अदबी लोग तो वहीं कहेंगे जो उनकी आंखों के सामने है. भूख-बेबसी को महसूस करने वाले लोगों की संवेदना वही कहेगी, जो अनुभूत है. डॉ पंकज कर्ण ने इस शेर के माध्यम से खुद को उस जनता के पक्ष में खड़ा किया है, जो भूखी है, लाचार है. एक सच्चे साहित्यकार भी फर्ज यही है.
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पुस्तक : ग़ज़ल एकादश
संपादक : डी.एम. मिश्र
प्रकाशक : हिंदी श्री पब्लिकेशन
मूल्य : 350/-
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समीक्षक : विनय
संपर्क – पक्की सराय, जेल रोड, मुजफ्फरपुर
शानदार समीक्षा लिखा है आपने…सादर नमन