डी.एम.मिश्र की ग़ज़लें लोक-जीवन का काव्यात्मक अंकन हैं
डी.एम.मिश्र की ग़ज़लें अपने स्वगत चिंतन और आत्मानुभूति के लोक में स्वछंद विहार करती हुई नज़र आती हैं। इसका प्रमुख कारण है लोक से उनका जुड़े रहना। शोषण में जकड़ी हुई और पूंजीवादी व्यवस्था से आक्रांत लोक जीवन अपनी मुक्ति के लिए जैसे संकल्प-विकल्प कर सकता है और जिस सीमा तक विद्रोह अथवा पलायन कर सकता है उसका बड़ा ही काव्यात्मक अंकन हुआ है। हम यह भी कह सकते हैं इनकी ग़ज़लों ने लोक संवेदना की छ्द्म समस्यापूर्ति का महत्व गौण बना दिया और उसकी अंतर्धारा को राष्ट्रीय काव्यधारा से जोड़ दिया। ऐसे तो हिन्दी ग़ज़ल में लोक संवेदना के परिदृश्य पर काफी कम काम हुआ है। इसी वजह से हिन्दी ग़ज़ल के विस्तृत परिवेश पर उँगलियाँ उठ जाती हैं, जो स्वाभाविक है। पूरा हिन्दी साहित्य अपना सफर लोक संवेदना से होते महानगर या अन्य विषयों की ओर रुख करता है। अधिकांश ग़ज़लकारों ने ऐसा नहीं सोचा। कहने के लिए ढेर सारे उदाहरण दिये जाते हैं लेकिन संवेदना की कसौटी पर कसे जाने पर शून्य के सिवा मिलता क्या है।
संस्कृति हमारे जीवन से अलग नहीं है। हमारे जीवन की गुणवत्ता का माप है जिसमें हम जीते हैं साहित्य में लोक-संस्कृति की बात तो बहुत होती है। यह एक साहित्यिक औपचारिकता भर है मानो वह हमारे जीवन से अलग प्रकार की कोई सिद्धि हो। लेकिन डी.एम.मिश्र की ग़ज़लों में लोक संवेदना की पकड़ काफी मजबूती के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होती है जिससे प्रतीत होता है ग़ज़लकार के पास लोक संवेदना की एक मजबूत दुनिया है।
“आईना-दर-आईना निर्भीक ग़ज़लकार डी.एम.मिश्र का नया ग़ज़ल-संग्रह है जो हाल ही में नमन प्रकाशन से छपकर पाठकों के समक्ष आया है। संग्रह में कुल 109 ग़ज़लें हैं। सारी ग़ज़लों के तेवर और कथ्य अलग-अलग हैं जिससे ग़ज़लकार के विस्तृत परिवेश का अवलोकन होता है। हालांकि संग्रह की ग़ज़लें जनवादी तेवर की हैं लेकिन कहन के लिहाज से वह कहीं भी सपाटबयानी की शिकार नहीं हुईं हैं। अपने भीतर की संवेदना और सौंदर्य बचाए रखती हैं। यह सही भी है। हर रचना का अपना उद्देश्य होता है। क्या उसे अलग से सीधे और सपाट शब्दों में कह दिया जाए। मेरे ख़याल से ग़ज़ल विधा के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं।
वर्तमान के मूल्यांकन की कसौटी उसके यथार्थ के निहितार्थ है। संग्रह की ग़ज़लों का स्वभाव भी उसी ओर इशारा करता है …
फूल तोड़े गए टहनियाँ चुप रहीं
पेड़ काटा गया बस इसी बात पर
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भेदे जो बड़े लक्ष्य को वो तीर कहाँ है
वो आइना है किन्तु वो तस्वीर कहाँ है
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तुम्हारा शहर है फिर भी वही चेहरा है उतरा सा
हुकूमत भी तुम्हारी है, तुम्हारा ही ज़माना है
किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये
हमारे गाँव से क्यों सादगी लेकर चुरा लाये
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ग़ज़ल की ये प्रतिबद्धता है कि सबसे पहले इसे छंदों और प्रतिमानों कसौटी पर कसा जाता है तब कहीं जाकर साहित्यिक दृष्टिकोण से इसके गहरे और मार्मिक अर्थों को साबित करना होता है। उपरोक्त सारे शेर बड़े फ़लक और लंबे कालखंड को समेटे हुए हैं। हाल के दिनों में देश में जो घटनाएँ घटी हैं,हमें चौंकाती और परेशान करती हैं। देश विरोधी कुछ ताक़तें सिर उठाती रहीं। तथाकथित बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मानकर चुप रहे। ग़ज़लकार का इशारा कुछ उसी ओर है। मसलन “फूल तोड़े गए टहनियाँ चुप रहीं । ”देश , संकोच और वर्जनाओं से लगातार लड़ रहा है। वाद दृविवाद के इस दौर में राह और निर्णय की कठिनाई है। एक अघोषित असमंजस है। तभी तो ग़ज़लकार को यह कहना पड़ रहा है….”भेदे जो बड़े लक्ष्य को वो तीर कहाँ है”।
डी.एम. मिश्र ग़ज़ल के युग पुरुष दुष्यंत कुमार की तरह मनुष्य को केंद्र में मानकर लिखते हैं और इनकी सृजनात्मक शक्ति नई दिशाओं की ओर संकेत भी करती है। इनकी ग़ज़लों में मानव-कल्याण की भावना है इसलिए ये आदर्शाेन्मुखी भी हो जाते हैं। लेकिन इनका अपना यथार्थ सदैव इनके साथ चलता है—–मतलब लेखकीय फिजूल फांताशी की बकवास से दूर । इनका यथार्थ हिन्दी ग़ज़ल को परिपक्व,अमिट यश और विस्तार देने में समर्थ है।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है संग्रह की ग़ज़लें आंचलिक प्रयोगों पर भी कितना अधिकार रखती हैं,जिससे भाषा और कथ्य में विशेष प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। एक खास तरह का देसी स्वाद का बोध होता है।
फिर आ गई है नयी योजना निमरा करे सवाल
जुगनू की दुम में रह-रह कर कैसे जले मशाल
गरीबदास से हाथ मिलाया आज कलेक्टर ने
देखो-देखो टीवी, अखबारों में नई मिसाल
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छू लिया मिट्टी तो थोड़ा हाथ मैला हो गया
पर, मेरा पानी से रिश्ता और गहरा हो गया
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इन परिंदों के लिए क्या आम,महुआ,नीम क्या
मिल गया जो पेड़ उस पर ही बसेरा हो गया
वर्णित शेरों की चेतना विचारों और हृदय की चेतना है …स्वाभाविकता के बिल्कुल करीब। ऐसा लगता है दृश्यों के आस-पास है। एक ओर जहाँ प्रशासन और राजनीति का छ्द्म चरित्र हमें परेशान करता है वहीं दूसरी ओर लोक संस्कृति के समीचीन शब्द और सुरक्षित लोक परंपराओं का विज्ञान हमें खींचता है । मिट्टी को छूना और हाथ का मैला होना तक तो सहजता का बोध होता है पर जब दूसरी पंक्ति यह उद्घाटित करती है कि पानी से रिश्ता और गहरा हो गया। हम इसे जलप्रेम भी मान सकते हैं। जैसा कि आभास हो रहा है निकट भविष्य में विश्व के समक्ष जल संकट आने वाला है। इस शेर में ग़ज़लकार की दूरगामी दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मानवता का संदेश साफ रूप से परिलक्षित हो रहा है। व्यक्ति सभी पीड़ाओं को सहकर जीवित रह सकता है,किन्तु भूख और प्यास की तड़पन और पीड़ा उससे सही नहीं जाती।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है मिश्र की ग़ज़लों को वस्तुगत यथार्थ का उसके क्रांतिकारी विकास की भूमिका में समाजवादी दृष्टि के आधार पर चित्रण करना चाहिए।
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समीक्षित कृति
आईना-दर-आईना(ग़ज़ल-संग्रह)
ग़ज़लकार-डी.एम.मिश्र
प्रकाशक – नमन प्रकाशन
4231/1,अंसारी रोड,दरियागंज
नई दिल्ली -110002
मूल्य-250/-
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समीक्षक -अनिरुद्ध सिन्हा,
गुलज़ार पोखर,मुंगेर (बिहार)811201