वक़्त के नब्ज को पकडती हुई कविताओं का संग्रह ‘बोलो न दरवेश’ : ज्योति रीता

वक़्त के नब्ज को पकडती हुई कविताओं का संग्रह ‘बोलो न दरवेश’ 

स्मिता सिन्हा हमारे समय की गंभीर कवियत्री हैं। वे सामान्य जीवन में हँसती -खिलखिलाती मोरनी- सी जान पड़ती हैं। एक पल को बे-परवाह दूसरे कोन से अगर देखना चाहें तो उतनी ही गंभीर, व्याकुल, परेशान। रोज़मर्रा के कामों, बातों, आमजन के तकलीफ़ों से कविताऍं गढ़ने वाली यह स्त्री कवि नमक/ घास/ इच्छा/ ख़ामोशी/ विस्थापन/ विदा / हँसी/ उदासी और वक़्त के नब्ज़ को पकड़ती हुई कविताएं रचती हैं।  प्रेम को हर कोने में स्थापित करती हैं।

यह कविता उनकी ही कविताओं की पंक्ति है। कविताओं में डूबकर छान लाई हूँ कुछ मोती। यह कविता उनके किताब में संग्रहित कविताओं का संक्षिप्त ब्यौरा है।

पगडंडियों का प्यार था घास से
घास को ओस से
इस को नंगे पैरों से

एकांत का एक उन्मत्त विलाप
जो सहज स्वीकार कर लेती हैं औरतें

अपने छोटे-छोटे हाथों से वे चुन रहे हैं
ज़िंदगी की सीपियों में छुपे मोती
जो आकाश में जाकर तारे बन जाते हैं

अब तुम यह ना कहना कि
दुख की गठरी में
निकृष्ट सा पड़ा सुख
सबसे अधिक बंजर होता है

जरूरी है तुम्हारा हँसना
हमारी हँसी के लिए
कि छूटना रिक्त होना होता है
छूटना गिरना होता है

मुझे अच्छी लगती हैं
धूप में तपती
सुर्ख़ गुलाबी रंगत वाली वो लड़कियाँ
जिसके गालों में गहरे गड्ढे पड़ते हैं

वह जो छटपटाहट में भी करती हैं हँसी की बातें
बेख्य़ाली में करती हैं इश्क़ की बातें
जबकि छिपकलियाँ छटपटा रही हैं उसकी मुट्ठी में

मैं अक़्सर लिख आती हूँ बेसाख्त़ा- सी हँसी
मैं अक़्सर छुपा आती हूँ इस शहर की भीड़ में अपना अकेलापन
और वह ऊंची आवाज़ में क्रांति की बात करता है

नक़्शे पर अभी नदियाँ उतनी ही लंबी गहरी और चौड़ी दिखती है
यात्रा एक अनकही शुरुआत है
उस अनंत के सापेक्ष में

बोलो ना दरवेश
यह तुम हो कि मैं
बोलो ना
यह तुम उतर रहे हो मुझ में
या यूं ही भरती जा रही हूँ मैं

इस विपरीत समय के शोरगुल में भी मैं सो जाती हूं बेसुध तुम्हारी पीठ पर टेक लगा कर

बस वहीं खत्म होती थी मेरी यात्रा
हमारे बीच देश भर का फासला है

उस रोज जब सारे शब्द निर्भीक हो चले थे
मैंने चेताया अपने शब्दों को

मैं लिखूंगी प्रेम उस दिन
जिस दिन सूखने लगेंगे पेड़ों के हरे पत्ते
खत्म होने लगेंगे जंगल
और दरकने लगेंगे पहाड़

पता है तुम्हें
इतनी तटस्थता यूँ ही नहीं आती
कि इतना आसान भी नहीं होता
जिंदा आँखों को कब्र बनते देखना

यकीन मानो
मैं बचा ले जाऊँगा
विश्व इतिहास की कुछ अंतिम धरोहरें।।

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पुस्तक का नाम- बोलो पा दरवेश।
कवि – स्मिता सिन्हा।
समीक्षक – ज्योति रीता
प्रकाशन- सेतु प्रकाशन
मूल्य- 150

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