पुस्तक – समीक्षा
सामाजिक तस्वीरों की ग़ज़लों के ‘ऋषि’
–डॉ. किशन तिवारी
पुस्तक – ‘तस्वीर लिख रहा हूँ’ (ग़ज़ल-संग्रह)
कवि – ऋषिपाल धीमान ‘ऋषि’ प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ – 132 मूल्य – 150 रुपये
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आज का समय मानवीय मूल्यों के ह्रास का समय है। वर्तमान समय का साहित्य जब समाज से कट जाता है तो वह पुस्तकालयों में बन्द होकर रह जाता है। जड़ होती सामाजिक मानसिकता मनुष्य को दिन-प्रतिदिन आत्मकेन्द्रित करती जा रही है। राजनैतिक विद्रूपताएँ समाज में हिंसक प्रवृत्ति को लगातार उद्वेलित कर रही है।
इन परिस्थितियों में ऋषिपाल धीमान ‘ऋषि’ जैसे रचनाकार न सिर्फ़ संवेदनशील मूल्यों को तरजीह देते हैं बल्कि भाषा, शिल्प और प्रवाह का ख़ूबसूरत तालमेल ‘ऋषि’ के चौथेग़ज़ल-संग्रह-‘तस्वीर लिख रहा हूँ’में नज़र आता है। ‘ऋषि’ की ग़ज़लेंअपने समय से रूबरू होती हैं, वे मनुष्य के दुख-दर्द, रहन-सहन, आचार-विचार, दशा और दिशा से जोड़कर मानवीय लंवेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। उनकी ग़ज़लका यह शेर उनकी पीड़ा को दर्शाता है-
दर्द को मैं ज़बान देता हूँ
नित नई दास्तान देता हूँ
मगर ‘ऋषि’ धीमान इतना कहकर ठहर नहीं जाते, उन्हें आने वाले कल पर पूरा भरोसा है वे कहते हैं-
यह बुरा दौर तेरा बदलेगा
वक्त किसका समान रहता है
‘तस्वीर लिख रहा हूँ’ग़ज़ल-संग्रह की ग़ज़लें समसामयिक विड़म्बनापूर्ण अन्तर्विरोधों को ग़ज़ल के साँचे में ढालकर उसे आम आदमी की संवेदनाओं में तथा स्वयं एक कवि अथवा फ़नकार के दर्द को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति देते हैं
आँखों में भरे फिरता है संसार के आँसू
संसार को कब दिखते हैं फ़नकार के आँसू
‘ऋषि’ धीमान सामाजिक सरोकारों के साथ राजनैतिक दुराग्रहों के प्रति भी सचेत हैं, एवं उन्हें बड़ी बेबाकी से अपने शेरों में ढाल देते हैं-
गर सियासी लोग मनमानी यूँ ही करते रहे
फिर गुलामी जैसे ही हालात ले आएँगे वे
जब राजनीति और मज़हब का गठजोड़ सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने लगता है, यह मानवीय मूल्यों को निम्नतर स्तर पर ले जाकर घृणा, विद्वेष और हिंसा को जन्म देता है इसे ‘ऋषि’ धीमान अपने शेर में यूँ कहते हैं-
सच कहा तो मज़हबी जज़्बात ले आएँगे वे
ज़ह्र तेरेवास्ते सुक़रातले आएँगे वे
‘ऋषि’ धीमान की रचना प्रक्रिया में मात्र बाह्य अवलोकन ही नहीं है, वे स्वयं से भी रूबरू होते हैं-
मैं न दुनिया के मुताबिक बन सका
वैसे अपने-आप को बदला बहुत
कवि अपनेसाहित्य की संरचना का संसार रचता है, जिसमें वह समस्त मानव-समाज को अपनेआप में समोता है, और फिर स्वयं को उनसे विलग कर एक तटस्थ भाव से अपनी परिकल्पना से उसे एक स्वरूप प्रदान करता है। वह जानता है वह जो रच रहा है वह अमर होगा या नहीं परन्तु अपने दायित्वों से कभी पीछे नहीं हटता और निरन्तर अपनी लेखनी से कुछ बेहतर देने का प्रयत्न करता है। ऋषि का इस बारे में स्पष्ट मत है कि-
शब्द जाने कौन-से जीवित बचें
यों तो हमने रात-दिन लिक्खा बहुत
कवि का आत्मविश्वास उसकी रचनाओं में झलकता है-
खेल मन का है और कुछ भी नहीं
जिसको उलझन समझके बैठा है
इसके साथ ही यह शेर भी उल्लेखनीय है-
जिसकी तस्वीर लिख रहा हूँ
मैं वो ही रंगो-जमाल देता है
‘तस्वीर लिख रहा हूँ’ संग्रह में ‘ऋषि’ धीमान की ग़ज़लें सामाजिक सरोकारों का सार्थक चित्रण करती हैं, आम आदमी की अवधारणाओं को अपने शेरों के माध्यम से अभिव्यक्ति करती हैं। उनके बारे में वैसे वही कहना चाहता हूँ जो उन्होंने अपने शेरों में कहा है-
रस हवाओं में घोलता-सा लगे
उसका हर लफ़्ज़ बोलता-सा लगे
‘ऋषि’ धीमान का यह संग्रह ‘तस्वीर लिख रहा हूँ’निश्चय ही पठनीय एवं संग्रहणीय है। हार्दिक शुभकामनाएँ।
किशन तिवारी
34-सेक्टर 9-ए, साकेतनगर
भोपाल-462024
मो.9425604488
मुझे डॉ० ऋषिपाल धीमान जी की रचनाएं पढने का सौभाग्य मिला है। धीमान जी मूलतः एक ग़ज़लकार हैं। इन्होनें अपनी ग़ज़लों के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं व विशिष्टताओं का अद्भुत चित्रण प्रस्तुत किया है। शायद कम ही लोगों को विदित होगा कि डॉक्टर धीमान शिक्षा व पेशे से एक वैज्ञानिक हैं और विज्ञान के क्षेत्र में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। साहित्य, विशेषत: ग़ज़ल, के प्रति अभिरुचि के वशीभूत, अपनी लगन व प्रतिभा के बल पर इन्होंने एक ग़ज़लकार के रूप में एक विशिष्ट पहचान बनाई है। भगवान इन्हें दीर्घायु प्रदान करें और माँ सरस्वती की इन पर सदा कृपा बनी रहे।
-अशोक कुमार
देहरादून