पुस्तक समीक्षा :: आईने से पूछो

सच को आईना दिखा रहा ‘आईने से पूछो’

  • सुदेश कुमार मेहर

ग़ज़ल का सौंदर्य उसके शिल्प में निहित है। ग़ज़ल की विशेषता ही यह है कि उसका सौन्दर्य उसके शिल्प की बंदिशों में छुपा हुआ है। शिल्प की यही बंदिशें उसके हुस्न में चार चाँद लगाती हैं उसे ऐब रहित बनाती हैं। यही कारण है कि अब तक इसके शिल्प से छेड़छाड़ नहीं की गई है।
वस्तुतः यह एक अनुशासन प्रिय, कठिन, नाजुक और आकर्षक विधा है। इसके कठिन होने में ही इसका आकर्षण है, और इसका अनुशासित होना ही इसे अन्य विधाओं से अलग एक सुगढ़ता और ख़ूबसूरती प्रदान करता है।
ग़ज़ल का अपना एक दंभ है उसकी अपनी एक चाल है जो उसे ग़ज़ल बनाती है। उर्दू परंपरा की कविताओं में ग़ज़ल अपनी इसी ठसक से अपना अलग स्थान बनाती है और अलग नज़र आती है। उसकी यह ठसक अगर न हो तो यह केवल बहर में कही गई कोई रचना भर होकर रह जाती है।
ग़ज़ल में भाषा पर पकड़ और शब्दों को उनकी उपयोगिता के अनुसार मिसरे में उपयुक्त स्थान पर पिरो देना एक कला है। अंततः मिसरों का ज़बान के ऐतबार से सहीह होना ही उन्हें आकर्षक बनाता है जो शेर के कालजयी होने की शर्त भी है। वास्तव में शब्दों को बरतने का हुनर ही शाइरी है। यही हुनर ग़ज़लों को विशिष्ट बनाता है। यह हुनर आते आते ही आता है। यह साधना का विषय है।
अविनाश भारती जनपक्षधरता के युवा शाइर हैं। समाज में फैली विद्रूपताएँ उनके भीतर के शाइर बेचैन करती हैं, उग्र करती हैं, कचोटती हैं और एक वैचारिक झंझावात पैदा करती हैं। वैचारिकी की यह स्थिति उनकी ग़ज़लों को नए तेवर देती है। यही तेवर उनके शेरों में आक्रोश बन कर उभरता है।
इन सबके बीच वे अपनी बात रखने का हुनर जानते हैं। वे अनभिज्ञ नहीं हैं कि किस बात को किस तरह, किस लहजे में कहना है वे यह बख़ूबी जानते हैं और बहुत सोच समझकर ही वर्डिक्ट की तरह कोई स्टेटमेंट देते हैं।
उनका यही लहजा आकर्षित करता है।

गनीमत है यही सबकी समझ में बात आई है
मेरे तकिये पे पानी भी मेरी छत से टपकता है

वे समाज के खोखलेपन से व्यथित तो हैं किन्तु उससे भागते नहीं हैं और न केवल इशारा भर करते हैं वरन उसे स्वीकारते हैं और अपनी जवाबदेही भी तय करते हैं।

जीती हैं क़ैद में बेटियाँ आज भी
हमसे टूटी नहीं बेड़ियाँ आज भी

वे अपने अनुत्तरित प्रश्नों की एक लम्बी श्रंखला साथ लिए चलते हैं जो उनके अंतर्द्वंद को विस्तार देती है, उन्हें आंदोलित भी करती हैं और असहज भी बनाती हैं। प्रश्नों के उत्तर की खोज में वे दूर तक निकलते हैं, आत्मचिंतन करते हैं, ख़ुद को मथते हैं और निष्कर्षों की बाट जोहते हैं।
आत्मचिंतन की पगडंडियाँ उन्हें आत्म-बोध की ओर बेदर्दी से खींचती हैं। इस प्रक्रिया में वे आत्मोन्मुखी हो उठते हैं। इस पॉइंट पर आकर उनका मन कुछ फ़िलॉस्फ़ोर-सा हो उठता है जो उनकी रचनाधर्मिता का सम्भवतः स्वाभाविक अंग बन बैठता है।

अपने अंदर कभी झाँककर देखिये
जिस्म में कौन है, आदमी तो नहीं!

दिन ब दिन बढ़ रही है घुटन हर तरफ
हम जिसे जी रहे ज़िन्दगी तो नहीं!

अविनाश की ग़ज़लों में अपने समय के स्वर प्रचुरता से मिलते हैं। इसलिए उनकी कहन और शाइरी में उनके शब्दों के चयन विशिष्ट हो उठते हैं। वे अपने आसपास से इतने अधिक प्रभावित हो उठते हैं कि कुछ भी नकारात्मक घटता हुआ उन्हें चिंतित होने पर मजबूर कर देता है। यहाँ आकर वे अचानक से साहित्यकार हो जाते हैं। वे उस सब पर भी विस्तार से कहते हैं जो कहा नहीं जा रहा है, जो छूट गया है अथवा छोड़ दिया गया है। युवा शाइर की यह फ़िक्र उसकी शाइरी के मेआर को बताती है। उनका प्रथम ग़ज़ल संग्रह “आईने से पूछो” इसलिए भी ख़ास हो जाता है।

जैसा कि पहले भी इस बात का उल्लेख किया है कि अविनाश की रचनाओं में आक्रोश के स्वर प्रमुखता से दिखाई पड़ते हैं। लेकिन यह आक्रोश वे विभिन्न तरीकों से व्यक्त करते हैं। कहीं तो उनके यह स्वर आक्रामक हो उठते हैं, तो कहीं वे व्यंग्यात्मक लहजा अपनाते हैं। वे युवा हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में भी वही युवापन परिलक्षित होता है। एक अधैर्यता उनकी शैली पर हावी हो उठती है, यद्यपि गंभीरता कहीं पर भी साथ नहीं छोड़ती है। अधैर्य के स्वर उनके आक्रोश को तीव्र अवश्य करते हैं किंतु झुंझलाहट पैदा नहीं करते हैं।

तमाशे की ज़रुरत है या बस करतब ज़रूरी है
मदारी ये समझता है कि क्या क्या कब ज़रूरी है

न जाने क्यों मुझे भी कुछ दिनों से लग रहा है ये
के अब इस मुल्क में इंसां नहीं मज़हब ज़रूरी है

उनकी ग़ज़लों में एक छटपटाहट भी नज़र आती है। वे अत्यंत व्यग्र हो उठते हैं और चाहते हैं कि सब कुछ रातों रात बदल जाए जिसकी पीड़ा और विद्रूपता उन्हें आहत करती है।
चूँकि उन्होंने चीजों को बहुत पास से देखा है, वे उनसे दो-चार हुए हैं और गाहे-ब-गाहे उनसे होकर गुज़रते रहे हैं, उनकी ग़ज़लों में परम्परागत आयातित पीड़ाएँ नहीं हैं। वे उनकी ज़हनी उपज नहीं हैं। यह उनका अपना और अपने आसपास घटा हुआ अनुभवजन्य यथार्थ है।
इसलिए वे कहते हैं-

इक अदद नौकरी के लिए नौजवाँ
हर ख़ुशी ज़िन्दगी की गँवाता रहा

जब वे इस शेर के मिसरा-ए-सानी में ज़िन्दगी की हर ख़ुशी को गँवाने की बात करते हैं तो मुआमला संज़ीदा हो उठता है। नौजवान की ज़िन्दगी की हर ख़ुशी यह बड़ा स्टेटमेंट हैं। साथ ही गँवाता रहा से वे यह भी स्थापित करते हैं कि यह परम्परा की तरह सदियों से चला आ रहा है, क़ायम है और आगे भी होता रहेगा। यह स्टेटमेंट वस्तुतः बड़ा है किंतु यह कविता में अतिशयोक्ति की तरह नहीं बरता गया है और न है। यह यथार्थ है। यह केवल इस एक शेर के संदर्भ में नहीं है बल्कि वे प्रायः यथार्थ की धरती पर ही लफ़्ज़ रोपते हैं और ग़ज़लें उगाते हैं। यथार्थ उनकी ग़ज़लों का अभिन्न हिस्सा है। जो आगे चलकर सम्भवतः बतौर ग़ज़लकार उनकी स्टाइल स्थापित हो।
वे इसलिए इसे ग़ज़ल में शेर के माध्यम से सामने लाते हैं-

कहता है दस्तूर ग़ज़ल का,
सच को सच ही कहना होगा

किताबी बात को पढ़कर फ़क़त कुछ भी नहीं होता,
कभी राहों के पत्थर भी हमें इंसां बनाते हैं।

यह उनकी अपनी एक परिभाषा है जिसे वे ग़ज़ल की अन्य परिभाषाओं की फ़ेहरिस्त में जोड़ते हैं। सच को सच कहना उनके लिए ग़ज़ल का दस्तूर है, और मैं समझता हूँ यह दस्तूर ज़रूरी है। किंतु वे यह भी जानते हैं कि यह मार्ग कंटकों से भरा है, दूभर है। कई दुश्वारियाँ हैं इस राह में। वे इसके लिए तैयार भी हैं और परिणामों के लिए आश्वस्त भी।
इसके लिए वे सटीक बात भी अपने लहजे में कहते हैं-

कुंदन जैसा बनना है तो
ताप अनल का सहना होगा

साथ ही-

ज्वाला से गुज़रना है इस मोम-से जीवन को
जीना है अगर इक पल, इक पल को गँवाना है

हम क़ैद में बुलबुल-से हर बात समझते हैं
हर हाथ में पत्थर है और हमपे निशाना है

उनका यह प्रथम ग़ज़ल संग्रह है किंतु उनकी ग़ज़लों के कंटेंट से प्रतीत होता है जैसे उनकी ग़ज़लों में प्रौढ़ता है, परिपक्वता है, नयापन है और एक ताज़गी भी है। यह उनकी लगन और कंसिस्टेंसी का परिणाम है। साधनाओं के प्रतिफल व्यर्थ नहीं जाते। शायद यही वज़ह रही होगी तभी अविनाश कहते हैं-

भटका करता है यादों की गालियों में
मन का क्या है मन बंजारा होता है

यह बहुत सच्ची बात बड़ी सीधी-सरल भाषा और सशक्त शैली में कही गई है।
उनकी यह भाषाई सरलता मन मोह लेती है। कितनी आसानी से बड़ी बात कही गई है। मिसरों में ज़बान की पॉलिशिंग कमाल है।
इसी तारतम्य में और भी कुछ शेर अवश्य ही यहाँ उद्घृत किए जाने की आवश्यकता है-

पाँव कहाँ पड़ते हैं उस पल धरती पर
जब हाथों में हाथ तुम्हारा होता है

आँगन की आँखें भी गीली होती हैं
घर का जब जब भी बँटवारा होता है

जिसे देखकर दिन गुज़रता था मेरा
उसे मैंने बरसों से देखा नहीं है

कुछ चुनिंदा शेर उनके इस संग्रह से देखे जा सकते हैं

कहीं जो मुक़द्दर का मारा मिला है,
लगा कोई हमको हमारा मिला है।

ख़ुद को ही ढूँढता फिर रहा है यहाँ,
आदमी ख़ुद से यूँ अजनबी तो नहीं!

लौटा कहाँ वो आज तलक तट पे दुबारा,
दरिया जो कभी जा के समंदर से मिला है

गुज़र ही गया सब कभी पास जो था
अभी पास जो है हमारा नहीं है

कहाँ ‘अविनाश’ जाओगे मुक़द्दर साथ लेकर तुम
ये धरती आसमाँ सब कुछ फ़साना ही फ़साना है

अंत में यह कि ग़ज़ल कहना लहू थूकने जैसा है, यह पीड़ाओं का सफ़र है और गहन साधना से ही इसे तय किया जा सकता है। जिसके लिए धैर्य लग्न और अथक परिश्रम और प्रयासों की आवश्यकता होती है। गिरना, उठना, उठकर चलना इस रास्ते पर चलने की शर्त होती है।अविनाश ने इस पथ को चुना है उनका स्वागत है। निश्चित ही वे अच्छा कह रहे हैं और बेहतर कहेंगे यह उम्मीद उनके इस संग्रह को पढ़ते हुए हो रही है।

यह ग़ज़ल संग्रह श्वेतवर्णा प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है । इसमें कुल 56 ग़ज़लें संग्रहित हैं।

अविनाश इस संग्रह के लिए बधाई के पात्र हैं । उन्हें हार्दिक बधाई और अनेकों शुभकामनाएँ ।
उनके इस शेर के साथ-

मिटाने की कोशिश करो चाहे जितनी
हरी ही रहेगी मेरी ज़िद की कोंपल
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पुस्तक समीक्षा : आईने पूछो

समीक्षक : सुदेश कुमार मेहर

पुस्तक का नाम :
ग़ज़लकार : डॉ. अविनाश भारती
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 104
मूल्य : 99

परिचय : सुदेश कुमार मेहर की कई ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी समीक्षा भी प्रकाशित होती रहती है.

संप्रति : रायपुर में रेलवे सेवा में कार्यरत

संपर्क : पता: बी -11, शुभ विहार कॉलोनी , शिवानंद नगर , सैक्टर-3, रायपुर, छत्तीसगढ़ -492008
मोबाइल: 9752442906

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