स्त्री विमर्श को नयी दिशा देता है बज्जिका उपन्यास ‘लाडो’ : हरिनारायण सिंह ‘हरि’ 

स्त्री विमर्श को नयी दिशा देता है बज्जिका उपन्यास ‘लाडो’
– हरिनारायण सिंह ‘हरि’
         हिन्दी की प्रमुख महिला गजलकारा डाॅ भावना की मातृभाषा बज्जिका है और ये अपनी माँ की तरह माँ की भाषा, मातृभाषा बज्जिका को भी बड़ा सम्मान देती हैं,प्यार देती हैं,दुलार देती हैं, तभी तो हिन्दी साहित्य के विशाल सागर में भी अपनी नौका को एक मुक्कमल पहचान दिला चुकने के बावजूद ये बज्जिका में भी लेखन कर रहीं हैं और सशक्त लेखन कर रही हैं। मुझे यह कहने में एकदम झिझक नहीं हो रही है कि आज के बज्जिका-लेखन का परिदृश्य यह है कि बहुत सारे प्रतिभाहीन लेखकों का यह एक शरणगाह बन चुका है। जिनको न हिन्दी साहित्य का ज्ञान है, न क्षेत्रीय भाषाओं में आधुनिक साहित्य लिखे जाने का भान, वे भी बज्जिका भाषा के साहित्य-लेखन के महंथ बन बैठे हैं। जो हिन्दी साहित्य में अपनी जड़ नहीं जमा सके, उनकी जड़ बज्जिका में बहुत गहराई तक जम चुकी है, जो कि बज्जिका के लिए हितकारी नहीं है। खैर, यहाँ यह भरास निकालने अवसर नहीं है। किन्तु ऐसे माहौल में हिन्दी साहित्य-लेखन में अपनी पहचान बना चुकीं डाॅ भावना का बज्जिका भाषा में उपन्यास ‘लाडो’ का प्रकाशित होना, बज्जिका साहित्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है। मैं बज्जिका साहित्य में इस उपन्यास का स्वागत करता हूँ।
                दो बैठकों में मैं संपूर्ण उपन्यास को पढ़ गया। यह उपन्यास इतना रोचक है कि इसे एक बैठक में भी पढ़ा जा सकता है। उपन्यास पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि डाॅ भावना यूँ ही नहीं, इतनी संस्कारशीला और व्यवहारकुशल हैं। उनमें गाँव के सत्संस्कार हैं और उन्होंने गाँव के जीवन को बहुत निकट से देखा ही नहीं है, बल्कि उसे जिया भी है। बज्जिकांचल के गाँवों के लोक-व्यवहार, पर्व-त्योहार, शादी-ब्याह और अन्य प्रयोजनों से उनकी भरपूर संगति रही है। डाॅ भावना को बज्जिकांचल की कहावतों, लोकगीतों और बीध-व्यवहारों की भी गहरी जानकारी है। लेकिन, साथ ही उक्त समाज में आ गयीं बुराइयों, विसंगतियों और प्रगति-विरोधी तत्वों की भी पहचान उन्हें है। तभी तो ‘लाडो’ उपन्यास की नायिका लाडो को इन्होंने इन सारी बाधाओं के सामने डट कर खड़ा होने की हिम्मत दी है, अपने इस बज्जिका उपन्यास में। इतनी सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यह लाडो की संकल्पशक्ति और उसके जीवट का ही सुफल है कि कम उम्र में एक दुत्ती वर से ब्याह देने के वाबजूद वह संघर्ष करती है और  पहले एक कुशल शिक्षिका बनती है  और अन्ततः एम ए, पीएच डी करने के बाद काॅलेज की प्रोफेसर। इसमें उसके पिता का भरपूर सहयोग मिलता है और उसकी माँ और दादी का स्नेह भी।
                इस उपन्यास का प्रणयन कर डाॅ भावना ने स्त्री-विमर्श को एक नयी दिशा दी है। वह यह है कि स्त्री-विमर्श के केन्द्र में सिर्फ स्त्रियों के समाज, परिवार और पति से विद्रोह ही नहीं हो सकते बल्कि इसके उलट समाज और परिवार के प्रति स्नेह के भाव रखते हुए भी स्त्री-विकास  के क्रांतिकारी कार्य हो सकते हैं। एक भारतीय समाज में अपने संस्कारों को बचाते हुए भी प्रगति के रास्ते तलाशे जा सकते हैं। बिल्कुल गाँधी के रास्ते।
                  लगता है कि उपन्यास को बहुत जल्दबाजी में पूरा किया गया है। पढ़ने के क्रम में कभी-कभी लगा कि जैसे मैं कोई लंबी कहानी पढ़ रहा हूँ। इस उपन्यास के अनेक स्थल ऐसे हैं,जिसे और विस्तार दिया जा सकता था। कथोपकथन के मार्फत पारिवारिक और सामाजिक जीवन के अन्तर्संबंधों को और भी उकेरा जा सकता था। लगता है कि बहुत कहने को शेष रह गये हैं। किन्तु, जहाँ तक मेरी जानकारी है, डाॅ भावना की यह पहली औपन्यासिक कृति है। आशा करता हूँ कि इस तरह की आगे की कृतियों वे इसका वे ध्यान रखेंगी और पाठकों को जीवन की और गहराइयों से परिचित कराएँगी।
            मुझे लगता है कि बज्जिका भाषा में ‘लाडो’ उपन्यास के लेखन और प्रकाशन से बज्जिका साहित्य में उपन्यास-लेखन को बढ़ावा मिलेगा।
            अब आते हैं इसकी भाषा पर। चूँकि बज्जिका बोली अब भी भाषा बनने की प्रक्रिया में है। कहने को तो बहुत साहित्य लिखे गये, किन्तु अभी तक इसके शब्द रूप स्थिर नहीं हो सके हैं। सब अपनी-अपनी तरह से लिख रहे हैं। थोड़ी अराजकता तो हैं ही। मेरा सोचना यह है कि बज्जिका हिन्दी की सबसे नजदीक की भाषा है। संस्कृत के जो शब्द हिन्दी होते हुए बज्जिका या किसी भी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में आये हैं, उनका उच्चारण भी हम उसी तरह से कर रहे हैं। उदाहरण के लिए ‘भाव’ शब्द, संस्कृत और हिन्दी में भी ‘भाव’  हैं, तो बज्जिका में ‘भाओ’ कैसे हो जाएगा ? तत्सम शब्दों का बलपूर्वक तद्भवीकरण नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, जो बज्जिका के पियोर शब्द हैं, उनको उसी रूप में लिखा जाना चाहिए।
                  सारांशतः, मैं यही कहूँगा कि ‘लाडो ‘ उपन्यास बज्जिका साहित्य के लिए और खासकर उपन्यास-लेखन के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि है। प्रसंगवश कह दूँ कि ज्वाला सांध्यपुष्प लिखित बज्जिका परिबंध ‘चेथरू कक्का ‘ भी उपन्यास पढ़ने जैसा ही आनंद दे गया। इस तरह की कृतियों से बज्जिका साहित्य समृद्ध हो रहा है। डाॅ भावना जी को बहुत-बहुत बधाई। उनसे बज्जिका भाषा में अगले उपन्यास की भी प्रतीक्षा रहेगी।
              ‘लाडो’ को प्रकाशित करने के लिए ‘श्वेतवर्णा प्रकाशन’ को सभी बज्जिका भाषा-भाषियों की ओर से हार्दिक धन्यवाद!
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कृति   : लाडो (बज्जिका उपन्यास)
उपन्यासकार : डाॅ भावना 
संस्करण       : प्रथम, 2024
प्रकाशक       : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नोएडा 
मूल्य             : 199 रुपये

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