विशिष्ट कहानीकार :: गीता पंडित
एक और दीपा – गीता पंडित सुनीता कहाँ हो ? कब से फोन की घंटी बज रही है, उठाती क्यों नहीं ? लेकिन सुनीता शायद बाहर बगीचे में कपड़े…
एक और दीपा – गीता पंडित सुनीता कहाँ हो ? कब से फोन की घंटी बज रही है, उठाती क्यों नहीं ? लेकिन सुनीता शायद बाहर बगीचे में कपड़े…
जलकुंभी नज़्म सुभाष नहरवल! हां यही नाम था उस गांव का। यहां के बुजुर्ग बताते हैं कि कभी यहां पर कई नहरें थीं जिससे पूरे क्षेत्र की सिंचाई होती थी…
कहानी ………………. इम्तहान – डॉ. अनिता सिंह कुमुद को लगा जैसे उसके दिमाग में धुँए का गुबार घुस रहा हो।धीरे-धीरे उसका पूरा शरीर धुंए…
ऑफिस से थकी हारी निर्मला जैसे ही घर में घुसी तो देखा उसका बेटा श्रेयस मोबाईल से चिपका हुआ है । सारा घर अस्त व्यस्त ….. कहीं कपड़े बिखरे पड़े…
पहचान – सोनाली मिश्रा इस छोटे शहर के इकलौते बड़े होटल में आकाश अपने कमरे में वापस आ गया। हालांकि बारिश का मौसम नहीं था पर बेमौसम बारिश ने उसे…
( यासुनारी कावाबाटा की जापानी कहानी ” द मोल ” का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद ) मस्सा – अनुवाद : सुशांत सुप्रिय कल रात मुझे उस मस्से के बारे में सपना आया । ‘ मस्सा ‘ शब्द के ज़िक्र मात्र से तुम मेरा मतलब समझ गए होगे । कितनी बार तुमने उस मस्से की वजह से मुझे डाँटा है । वह मेरे दाएँ कंधे पर है या यूँ कहें कि मेरी पीठ पर ऊपर की ओर है । ” इसका आकार बड़ा होता जा रहा है । और खेलो इससे । जल्दी ही इसमें से अंकुर निकलने लगेंगे । ” तुम मुझे यह कह कर छेड़ते , लेकिन जैसा तुम कहते थे , वह एक बड़े आकार का मस्सा था , गोल और उभरा हुआ । बचपन में मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने इस मस्से से खेलती रहती । जब पहली बार तुमने इसे देखा तो मुझे कितनी शर्मिंदगी महसूस हुई थी । मैं रोई भी थी और मुझे तुम्हारा हैरान होना याद है । ” उसे मत छुओ । तुम उसे जितना छुओगी , वह उतना ही बड़ा होता जाएगा । ” मेरी माँ भी मुझे इसी वजह से अक्सर डाँटती थी । मैं अभी छोटी ही थी , शायद तेरह की भी नहीं हुई थी । बाद में मैं अकेले में ही अपने मस्से को छूती थी । यह आदत बनी रही , हालाँकि मैं जान-बूझकर ऐसा नहीं करती थी । जब तुमने पहली बार इस पर ग़ौर किया तब भी मैं छोटी ही थी , हालाँकि मैं तुम्हारी पत्नी बन चुकी थी । पता नहीं तुम , एक पुरुष , कभी यह समझ पाओगे कि मैं इसके लिए कितना शर्मिंदा थी , लेकिन दरअसल यह शर्मिंदगी से भी कुछ अधिक था । यह डरावना है — मैं सोचती । असल में मुझे तब शादी भी एक डरावनी चीज़ लगती । मुझे लगा था जैसे तुमने मेरे रहस्यों की सभी परतें एक-एक करके उधेड़ दी हैं — वे रहस्य , जिनसे मैं भी अनभिज्ञ थी । और अब मेरे पास कोई शरणस्थली नहीं बची थी । तुम आराम से सो गए थे । हालाँकि मैंने कुछ राहत महसूस की थी , लेकिन वहाँ एक अकेलापन भी था । कभी-कभी मैं चौंक उठती और मेरा हाथ अपने-आप ही मस्से तक पहुँच जाता । ” अब तो मैं अपने मस्से को छू भी नहीं पाती । ” मैंने इस के बारे में अपनी माँ को पत्र लिखना चाहा , लेकिन इसके ख़्याल मात्र से मेरा चेहरा लाल हो जाता । ” मस्से के बारे में बेकार में क्यों चिंतित रहती हो ? ” तुमने एक बार कहा था । मैं मुस्करा दी थी , लेकिन अब मुड़ कर देखती हूँ , तो लगता है कि काश , तुम भी मेरी आदत से ज़रा प्यार कर पाते । मैं मस्से को लेकर इतनी फ़िक्रमंद नहीं थी । ज़ाहिर है , लोग महिलाओं की गर्दन के नीचे छिपे मस्से को नहीं ढूँढ़ते फिरते । और चाहे मस्सा बड़े आकार का क्यों न हो , उसे विकृति नहीं माना जा सकता । तुम्हें क्या लगता है , मुझे अपने मस्से से खेलने की आदत क्यों पड़ गई ? और मेरी इस आदत से तुम इतना चिढ़ते क्यों थे ? ” बंद करो ,” तुम कहते , ” अपने मस्से से खेलना बंद करो । ” तुमने मुझे न जाने कितनी बार इसके लिए झिड़का । ” तुम अपना बायाँ हाथ ही इसके लिए इस्तेमाल क्यों करती हो ? ” एक बार तुमने चिढ़ कर ग़ुस्से में पूछा था । ” बायाँ हाथ ? ” मैं इस सवाल से चौंक गई थी । यह सच था । मैंने इस पर कभी ग़ौर नहीं किया था , लेकिन मैं अपने मस्से को छूने के लिए हमेशा अपना बायाँ हाथ ही इस्तेमाल करती थी । ” मस्सा तुम्हारे दाएँ कंधे पर है । तुम उसे अपने दाएँ हाथ से आसानी से छू सकती हो । ” ” अच्छा ?…
कर्तव्य पथ – माधवी चौधरी कल से ही अमृत की तबीयत फिर खराब थी । नीलम परेशान क्या करे और क्या न…
कोरोना की चिट्ठी कर्मवीर के नाम – राजेन्द्र श्रीवास्तव प्यारे भाई कर्मवीर, कोहराम मचाने वाले…
चलिए अब…. – सिनीवाली शर्मा परमानंद बाबू की पत्नी के देहांत होने के कुछ दिनों के बाद सभी इसी बात पर चर्चा कर रहे हैं कि इनके आगे के दिनों…