तीसरी दुनिया में लोकतंत्र | आदमीनुमा ढोल |
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हमने कहा भूख तुमने सुना लेमनचूस और खाली बजते पेट पर तुमने लिख दिया कब्ज़ की शिकायत हमने कहा नौकरी तुमने सुना छोकरी और भौंडे दांतों से तुम हंसने लगे कि सपने वेश्या है हमने कहा खुशहाली तुमने सुना रूदाली और उदास लटके चेहरे में तुमने ठूंस दिए पिज़्जा़ और बर्गर हमने कहा क्रांति तुमने सुना देशद्रोह और अघोषित संविधान से तुमने ढूंढ ली लाखों धाराएं जब कहने को कुछ नही बचा तब तुमने कहा श्श्श्श्श्... हमने सुना लोकतंत्र ! | उसने पूछा - प्रस्थान का कोई बिंदु ? मैंने कहा - आदमी ढोल है बिना सूराख का.. जिसे कोई भी जब चाहे ,तब पीट ले थप !थप !थप ! थपा थप !की ध्वनि और बेशर्मी में सफलता से ज़्यादा फर्क नही और भई आदम के वंश होने का दंभ भरने वालों अगर तुम ढोल न होते तो कभी कोतवाली की ज़रूरत पड़ती ? फिर भी सुनना है तो सुन लो 'सत्यं शिवं सुन्दरं' 'कानून की नज़र में सब बराबर हैं' 'बदलाव आएगा' 'संविधान ही मेरा धर्म है' जैसे पॉलिटिकल और सोशली करेक्ट जुमलों से आदमी बज सकता है ढोल फट सकता है बाकी बचे नंगे पन को ढकने के लिए बाज़ार का पूर्ण विराम तो है ही बिकने को तैयार न भी हूए तो जनहित में जारी विज्ञापन कहेगा इंतज़ार और भूख में कुत्ते की दूम से अधिक साम्य नही इसीलिए चमड़े को खींच-तान कर आदमी खुद से ही खुद को बजाता है थिरकता है थाप पर थप !थप !थप ! थपा थप ! उसने पूछा -आदमी पाएजामा भी तो हो सकता है? मैंने कहा -आदमी हर युग में अपने लिए एक नई गाली बनता है पाएजामे को किसी नए युग के नए कवि के लिए छोड़ देते हैं... |
परिचय – कविता एवं कहानी लेखन- ललन टॉप कहानी लेखन प्रतियोगीता में प्रथम पुरस्कार
दिल्ली के एक स्कूल मे शिक्षक