1
निगाहें मेरी जाती हैं जहाँ तक
नज़र आता है तू मुझको वहाँ तक
महब्बत की अजां देता रहूँगा
कोई आये, नहीं आये यहाँ तक
कमर तक आ गया आबे-मुहब्बत
ज़रा देखें ये जाता है कहाँ तक
दिले-नादां ज़रा अब बाज़ आ जा
उसे हम छोड़ आये हैं मकाँ तक
जहां में धूम हिंदी की मची है
नहीं महदूद ये हिन्दोस्ताँ तक
शबाबो-मैकदा से तेरी रग़बत
कभी नीलाम कर देगी मकाँ तक
तेरा जलवा हर इक शय में निहाँ है
तू ही तू है ज़मीं से आसमाँ तक
न बाज़ आऊँगा हक़गोई से “साहिल”
क़लम सर हो कि कट जाए ज़ुबां तक
2
ढूँढते हो क्या निशानी रेत पर
बीत जायेगी जवानी रेत पर
पत्थरों में आग का इतिहास है
और पानी की कहानी रेत पर
जिसने अल्लाह से मिलाया इश्क़ को
वो थी इक लैला दीवानी रेत पर
कीजिए चाहे जहाँ से भी शुरू
ख़त्म होगी हर कहानी रेत पर
ढूँढ लेगी एक दिन अपना मकाँ
तेरी मेरी ज़िन्दगानी रेत पर
बस यही क़िस्सा बचा रह जाएगा
एक राजा एक रानी रेत पर
3
याद आई, गई, हो गई
आँख क्यों शबनमी हो गई
तूने जैसे छुआ रात को
मिस्ले-दिन रौशनी हो गई
हिज्र की रात अब तो मेरी
उम्र से भी बड़ी हो गई
जब से शोहरत बढ़ी आपकी
दोस्ती में कमी हो गई
ओढ़कर वो चुनर प्यार की
फिर नई की नई हो गई
4
जीना इस दौर में मुहाल हुआ
ये भी एहसास अब के साल हुआ
कुछ न होने पे मर्सिया कैसा
कुछ न होना ही तो कमाल हुआ
सारे अल्फ़ाज़ रायगाँ ही गए
एक ही लफ़्ज़ से वबाल हुआ
जिसकी जड़ थी ज़मीन में जितनी
पेड़ उतना ही वह विशाल हुआ
बाद में देखना हथौड़े को
पहले देखो कि लोहा लाल हुआ
बेईमानों की इक अदालत में
अहले- ईमां से ही सवाल हुआ
बूढ़े बीमार भाईचारे का
तुम जो आए तो इंतकाल हुआ
लेकर अब आइये नया जुमला
जो पुराना था भूतकाल हुआ
5
जहाँ से बेख़बर हूँ
फ़क़ीरे-रहगुज़र हूँ
किसे के दिल की रहत
किसी का दर्दे-सर हूँ
डरूं क्यों पत्थरों से
मैं शाख़े-बेसमर हूँ
सियासत जानती है
इधर हूँ या उधर हूँ
न शामिल रहज़नों में
नहीं मैं राहबर हूँ
उसे साये की चाहत
मैं इक सूखा शजर हूँ
मैं ज़द में ज़िन्दगी की
फ़क़त इक उम्र-भर हूँ
मिला ख़िदमत का समरा
कि मैं भी औज पर हूँ
नज़र में अपनी माँ की
मैं भी लालो – गुहर हूँ
दुआ की बारिशों से
मैं ‘साहिल’ तर-ब-तर हूँ