ग़ज़ल
- सुशील साहिल
पिता के हाथ में पहली कमाई दे नहीं पाया
कभी बीमार माँ को मैं दवाई दे नहीं पाया
लियाक़त औ मशक़्क़त से जो आगे की तरफ़ निकला
मेरा कमज़र्फ़ दिल उसको बधाई दे नहीं पाया
तेरी आँखों ने चाहा था नया चश्मा फ़क़त मुझसे
अभी रोता हूँ मैं तुझको ऐ माई, दे नहीं पाया
सरकती उंगलियाँ मेरा बदन छूने को थीं लेकिन
मैं तेरे हाथ में अपनी कलाई दे नहीं पाया
तरक़्क़ी के लिए पैग़ाम भी आया मेरी जानिब
बहुत सोचा, पसीने की कमाई दे नहीं पाया