ग़ज़ल
1
यों कभी लगता है जैसे मुश्किलों से दूर हूँ,
और कभी लगता ख़ुशी की महफ़िलों से दूर हूँ।
मान से होना वो ख़ुश अपमान से होना दुखी,
मैं अभी तक पुख़्तगी की मंज़िलों से दूर हूँ।
मेरे अपनों ही ने मेरा कर दिया क़िस्सा तमाम,
मैं समझता ही रहा मैं क़ातिलों से दूर हूँ।
यों तो है आभास सबका, हूँ मगर तन्हा बहुत,
आज का इंसान हूँ, सबके दिलों से दूर हूँ।
आज तक भी नासमझ हूँ कहने को बरसों से मैं
आक़िलों के पास हूँ और जाहिलों से दूर हूँ।
शेर इक सुनना नहीं बस करते रहना वाह वा!
शायरी की ऐसी हल्की महफ़िलों से दूर हूँ।
जो मिला मुझको मेरी उम्मीद से बढ़कर मिला,
मैं तरक्की के दिखावी सिलसिलों से दूर हूँ।
मैं निरंतर चल रहा हूँ लेके शब्दों की मशाल,
शायरी के धूल उड़ाते क़ाफ़िलों से दूर हूँ।
नाव ख़ुद्दारी की चुन ली थी इसी कारण ‘ऋषी’
शुहरतों के , दौलतों के साहिलों से दूर हूँ।
2
कोई भी शय ख़ुदी से तो जुदा होकर नहीं मिलती,
ख़ुशी अंदर ही मिलती है कहीं बाहर नहीं मिलती।
न जाने कैसे-कैसों के घरों में मिलती है दौलत,
जहाँ इसकी ज़रूरत हो वहाँ अक्सर नहीं मिलती।
उठाये फिरता है संसारभर में मज़हबी परचम,
दया की भावना तिलभर तेरे अंदर नहीं मिलती।
तेरी ही तरबियत में कुछ कमी शायद रही होगी,
तेरी औलाद ही तुझसे अगर खुलकर नहीं मिलती।
किसी को तो बिना कुछ भी किये मिल जाती है शुहरत,
नहीं मिलती किसी को तो ये जीवनभर नहीं मिलती।
बुज़ुर्गों के बताये ढंग से सींचा इसे होता,
मुहब्बत की ज़मीं इस पीढ़ी को बंजर नहीं मिलती।
मेरी सीरत पे यों संजीदगी का रंग है तारी,
मेरी सूरत भी दर्पण से कभी हँसकर नहीं मिलती।
तेरे बर्ताव में या सोच में कुछ गड़बड़ी तो है,
तेरी करनी तेरी कथनी से गर अक्सर नहीं मिलती।
वो मेरी शख़्सियत की ख़ामियाँ टन में बताते हैं,
‘ऋषी’ जिनको मेरे फ़न में कमी तिलभर नहीं मिलती।
3
अहसास की अगन में तपाकर निकाल लूं,
भट्टी से दिल की लफ़्ज़ों के ज़ेवर निकाल लूं।
जीवन की भागदौड़ में आता है यह खयाल,
ख़ुद के लिये भी जीने के अवसर निकाल लूं।
आई है मुश्किलों की बड़ी फ़ौज जंग को,
दिल के किले से अज़ म का लश्कर निकाल लूं।
जीवन के प्रश्न पूछ रहा था जहान से,
अब सोचता हूं ख़ुद से ही उत्तर निकाल लूं।
सब खेत बिक चुके हैं मगर हूं किसान ही,
माटी से दिल के खेत की कुछ जर निकाल लूं।
बेशक बुरा हूं यार मगर पीठ देखकर,
तुझ सा तो मैं नहीं हूं , कि खंजर निकाल लूं।
पलभर तो मेरे वास्ते रुक मेरे हफसफर,
जूते में जो घुसा है वो कंकर निकाल लूं।
निश्चित निकाल लूंगा कुएं से मैं आपको,
पहले ‘ऋषी जी ‘ ख़ुद को तो बाहर निकाल लूं।
4
समझेगा कोई कैसे असरार ज़िन्दगी के,
होते नहीं हैं रस्ते हमवार ज़िन्दगी के।
यह कौन -सी है बस्ती यह कौन -सा जहां है,
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िन्दगी के।
जब इक खुशी मिली तो सौ गम भी साथ आए,
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िन्दगी के।
सारी उमर हैं तरसे ख़ुद से ही मिलने को हम,
कुछ इस तरह निभाए किरदार ज़िन्दगी के।
अपना ही हाथ जैसे अपने लहू में तर है,
देखें हैं रंग ऐसे सौ बार ज़िन्दगी के।
इक भूख से बिलखते बच्चे ने मां से पूछा,
क्या सच में हम नहीं हैं हकदार ज़िन्दगी के।
‘ ऋषि ‘ जिसने ज़िन्दगी के सब फ़र्ज़ थे निभाए,
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िन्दगी के ?
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परिचय : ऋषिपाल धीमान ‘ऋषि’ निरंतर ग़ज़ल लिख रहे हैं. इनकी कई ग़ज़लें विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.