केशव शरण की ग्यारह ग़ज़लें
1.
बताये दर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
मैं पुराने घर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
वायदे पर भेंट करने चीज़ शीशे की लिये
मैं गली पत्थर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
मैं जहाँ बैठा हुआ था राह तकता बुत बना
मैं जहाँ उड़कर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
शांत मूरत पूछ बैठी तुम अकेले ही इधर
मैं उसी मंदर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
क्या बताता मालियों से हम वहाँ थे बैठते
टूट वो तरुवर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
इस नगर की भीड़ में जब ढूँढ तुमको थक गया
मैं विजन प्रांतर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
ख़ूबसूरत थे नज़ारे बस कहीं से आ मिलो
देखने निर्झर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
झील के बाहर तलाशा दूर दसियों मील तक
झील के अंदर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
देवघाटी में भटकता मैं तुम्हारे वास्ते
दिव्य पर्वत पर गया था तुम वहाँ भी थे नहीं
2
सही-सही कुछ दिशा नहीं है सही-सही कुछ डगर नहीं है
इधर-उधर से कहीं पहुँचते, कहीं पहुँचना सफ़र नहीं है
यहीं कहीं तुम यहीं कहीं हम, बहुत बड़ी तो जगह नहीं ये
तुम्हें हमारी ख़बर नहीं है हमें तुम्हारी ख़बर नहीं है
न पानियों में न आग में है न दाग़ में है असल समस्या
कि प्रेम संभव न क्रांति संभव बड़ा अगर दिल-जिगर नहीं है
कशिश ख़लिश में बदल गई है मगर जिगर का लहू न देखा
हसीन चेहरा ज़रूर उसका दयालु जिसकी नज़र नहीं है
हमीं न झुकते लफंगई से हमीं न दबते दबंगई से
लफंगई में कमी न उनकी दबंगई में क़सर नहीं है
करैत विषधर बहुत बड़ा था भला यही और को न काटा
विशेष है ये शरीर मेरा जिसे ज़हर का असर नहीं है
बड़े हितैषी बने हुए हैं बड़े बताते उपाय हमको
मगर न कोई उपाय जिसमें अगर नहीं है मगर नहीं है
बड़ी मशक़्क़त लगा रहे हैं चला रहे हाड़तोड़ चप्पू
बहुत कठिन है किनार पाना, हवा नहीं है लहर नहीं है
विशेष वर्णन यही परी का अधर- नयन हैं विशेष सुंदर
उरोज भारी विशेष भारी, विशेष ये भी कमर नहीं है
3
उम्र-भर चलते रहे हम रास्तों पर ख़ार के
अब हमें आराम दे दो सेज पर अंगार के
यार निद्रा-मग्न होगा मत जगाना यार को
हो गये अरमान पूरे ख़्वाब पूरे यार के
याद आता नीर शीतल याद आती जलपरी
तप्त मरुथल आर के थे तप्त मरुथल पार के
एक हाहाकार बाहर एक भीतर मुर्दनी
और क्या मिलता ज़माना जीत के या हार के
नफ़रतों से वास्ता क्या रंजिशों से रब्त क्या
हम हमेशा दोस्ती के हम हमेशा प्यार के
तू पिये जा तू पिये जा मय हमारे अंश की
हम नशे में हो रहे हैं जाम तेरा ढार के
लाभ की सोचो न वरना घोर घाटा तय रहा
प्यार का सौदा लगाओ मत नियम बाज़ार के
4
कर गये भारी उभरकर पल तुम्हारे प्यार के
जी किया हल्का पलक से आँसुओं को झार के
प्यार भी लूटा गया पर सम्पदा दिल की बहुत
हम नहीं निर्धन हुए सब माल-पानी हार के
ज़िंदगी की मार, हाहाकार है अपनी जगह
और अपनी मस्तियाँ अपनी जगह झंकार के
प्यार का मरहम मिला है पर हमेशा तो नहीं
हम निशाना जब बने हैं तीर के, तलवार के
फूल के ख़ुशरंग, ख़ुश्बू, रूप से मतलब नहीं
दिल दिखाए ख़ार तो समझो हुए हम ख़ार के
जागती आँखें जिन्हें देखें उन्हीं को सेवते
अब नहीं हम पालते हैं ख़्वाब सब बेकार के
जो लगे अच्छा वही अच्छा वगरना ख़ुद करो
सच यही है मशविरे भी चार होंगे चार के
5
ज़िंदगी में क्या बचा है क्या बचा है याद में
प्रेमनगरी से मुहाज़िर मैं परायाबाद में
कुछ न समझेगा अभी ये बात कोई प्यार की
जी रहा है आदमी जिस नफ़रती उन्माद में
ये बुराई विश्व-भर में हर नगर हर गाँव तक
अल्पसंख्यक को दबाते जो अधिक तादाद में
चार जन मारे गये यूँ दो सियासी गुट भिड़े
एक जिंदाबाद में जुट एक मुर्दाबाद में
चुस्त काफ़ी और माहिर हुस्न ढाने में सितम
पर अनाड़ी सुस्त बेहद इश्क़ है फ़रियाद में
कीट ग़म के चाल बैठे ज़िंदगी की नाज़ुकी
लग गया है मोरचा भी जिस्म के फ़ौलाद में
पेड़ ख़ुश नव पात पाकर और आशा में मगन
फूल लगने तक झरे सब पात होंगे खाद में
6
मलालों में मुरव्वत एक दिन मुझको फँसा देगी
पता क्या था मुहब्बत एक दिन मुझको फँसा देगी
सयानों के लिए देता नहीं गर जानता होता
कि मेरी ही शहादत एक दिन मुझको फँसा देगी
करेगी दूर मुझको इश्क़ से भी और मय से भी
न सोचा था इबादत एक दिन मुझको फँसा देगी
सुना था चार दिन में आय दूनी, चौगुनी होगी
यही लेकिन तिज़ारत एक दिन मुझको फँसा देगी
बनूँगा फूल देकर प्यार के इज़हार का दोषी
इशारों की शरारत एक दिन मुझको फँसा देगी
मुझे कर सामने बदमाश के ख़ुद आड़ ले लेते
शरीफ़ों की शराफ़त एक दिन मुझको फँसा देगी
उतरना चाहते शोला बदन इस मोम के दिल में
मगर इसकी इजाज़त एक दिन मुझको फँसा देगी
7
हम उसी ठौर चले चाह जहाँ जायेगी
धूप है तेज़ बड़ी राह बिना साये की
ख़ूब है खुश्क ज़मीं की य’ तलबगारी भी
आसमां साफ़ मगर सोच घटा बरसेगी
दूर से देख रहे मौज बही जाती है
आज जब एक नहीं बूँद नदी में पानी
सिर्फ़ बत्तीस बरस साथ दिया प्यार किया
एक दिन छोड़ गया हाथ हमारा साथी
यूँ न महसूस करूँ प्यार खिले फूलों से
फूल ये खुश्क तुम्हारे कि मुहब्बत लगती
सोचता चौक खड़ा एक बड़ा दिलवाला
इस नगर बीच नहीं एक ज़रा दिलवाली
घर कई रौंद गया दैत्य सिफ़त बुलडोजर
काम पूरा न अभी और कई घर बाक़ी
रंज और दर्द मुझे पास तुम्हारे लाये
घूँट-दो-घूँट मुझे आज पिला दो साक़ी
8
लगता कि है प्रवाह रुका गंगधार का
कटता न दिन बग़ैर शिवा सोमवार का
इक भगवती तलाश रहा जो उदार हो
वो क्या मनुष्य जो कि बिना भक्ति-प्यार का
काशी पुनीत घाट जहाँ भाँग घोंटते
प्रस्ताव है अमान्य यहाँ आँग्ल बाॅर का
ये गीत का निकुंज ग़ज़ल का चमन रहा
उपलब्ध नित्य दिव्य नज़ारा बहार का
चंदन लगा ललाट पहन वस्त्र गेरुआ
पड़ता पतित प्रतीत पुजारी प्रकार का
सादा मिज़ाज संत बने कब महंत हैं
पाखंड कालखंड ज़माना प्रचार का
मगहर कबीरदास रहे अंत काल में
काशी, अवध, प्रयाग न मथुरा न द्वारका
9
मयख़ाने से जुड़ जाता है जिस दम बारिश का मौसम
खिल उठता है मुरझाया-सा दिल की ख़्वाहिश का मौसम
तन का जंगल सूखा, धधका, मन की नद्दी निर्जल थी
कैसा ज़ालिम गुज़रा हम पर जो था आतिश का मौसम
क़ुर्बान हमें होना है अब सब्ज़ परी की शोख़ी पर
वो दिल लेगी या जां लेगी ये फ़रमाइश का मौसम
मेले-ठेलों में सुन्दरियाँ घूम रहीं श्रृंगार किये
हम भी मचले औरों जैसा देख नुमाइश का मौसम
मौसम ही मौसम को लाता जाते-जाते अपने वो
एक करिश्मे में बदलेगा इक दिन कोशिश का मौसम
सुखकारी इस्थिरता की रुत आयेगी इक दिन तय है
न रहा है न रहेगा सब दिन दुखमय गर्दिश का मौसम
सन्नाटे का छंद नहीं अब चलने वाला पावस में
तबला, ढोलक, सारंगी की मीठी बंदिश का मौसम
जितना कर सकते हो उतना प्यार करो तुम प्यार करो
होने दो दुनिया के दिल में नफ़रत, रंजिश का मौसम
10
कहीं नगर में विहार करते अगर मुझे बेकली हुई है
सड़क हुई वो न भीड़ वाली वरन् तुम्हारी गली हुई है
अगर बचा कुछ बचा बिखरना उसे नहीं है ख़याल इसका
उसी तरह है गयी न ऐंठन गुमान-रस्सी जली हुई है
नचा रही ख़ूब आदमी को निचोड़ती धन बिना रहम के
कहीं-कहीं है उलट नज़ारा हसीन औरत छली हुई है
मिले इज़ाज़त कि लब लगायें तलब मिटायें बहुत दिनों की
बड़ी नशीली शराब है ये गिलास में जो ढली हुई है
इसीलिए तो ख़मोश थे हम न खोलते थे ज़ुबान अपनी
कहाँ नहीं ज़लज़ले उठे हैं कहाँ नहीं खलबली हुई है
चरण बड़े हैं सुपुष्ट जिनके विकास का पथ अधीन उनके
चलें रथों पर अमीर जन सब ग़रीब जनता दली हुई है
तुम्हें बता दें कि जान लो तुम हमीं बनाये कभी उसे थे
हमें बताते सगर्व क्या तुम सड़क तुम्हारी चली हुई है
सुखों, दुखों से भरी हुई है भले बड़ी हो न वाटिका ये
सुखा गये हैं समूल गेंदे, गुलाब में इक कली हुई है
कभी नहीं अब मिलाप होगा, विवश, विकल मैं विलाप करता
यही दिलासा नसीब होता मिलाप की तिथि टली हुई है
11
क्यों नहीं लगा पहले, झेल फल न सकता था
प्यार के बिना भी क्या काम चल न सकता था
एकदम अकेला था पर अजीब कुछ ऐसा
अंग हर किसी के लग दिल बहल न सकता था
किसलिए सितारे हैं मैं लपक न सकता हूँ
किसलिए खिलौने थे मैं मचल न सकता था
और भी उलझता मैं हर प्रयास में अपने
प्रेम की समस्या थी कर सरल न सकता था
तय नहीं नशा इसका कब तलक रहेगा जो
इश्तहार पढ़कर मैं पी गरल न सकता था
कौन दे दवा मुझको दे रहे सभी ताने
पालते नहीं तुम तो दर्द पल न सकता था
दोष और कितनों को जब नहीं ख़ुदी को दो
इस क़दर रहे भोले कौन छल न सकता था
ख़त्म तीलियाँ कर दीं फूँक-फूँक सिगरेटें
तार रुनझुनाने से दीप जल न सकता था
मैं यही नहीं सोचूँ बस वियोग में रोऊँ
था लिखा मुक़द्दर में और टल न सकता था