1
अलग तुमसे नहीं मेरी कथा है
तुम्हारी ही व्यथा मेरी व्यथा है
ये गूंगे और बहरों का शहर है
किसी से कुछ यहां कहना वृथा है
हताहत सभ्यताएं हो रही हैं
हुआ पौरुष पराजित सर्वथा है
तुम्हीं से ज़िन्दगी में रोशनी है
चतुर्दिक कालिमा ही अन्यथा है
बिना बरसे घुमड़ कर भाग जाता
कृपण, बादल कभी ऐसा न था है
समय का दोष है या आदमी का
सदा ऐसे सवालों ने मथा है
अभी ‘घनश्याम’ की पूंजी यथा है
समर्पण, प्यार, अपनापन तथा है
2
शुद्ध अंत:करण नहीं मिलता
स्वस्थ वातावरण नहीं मिलता
कर्म से मन-वचन नहीं मिलते
धर्म से आचरण नहीं मिलता
भंगिमाएं भी बात करती हैं
मौन का व्याकरण नहीं मिलता
छल-कपट-द्वेष फूलते फलते
नेह का अंकुरण नहीं मिलता
नींद अन्याय को नहीं आती
न्याय को जागरण नहीं मिलता
त्रास,पीड़ा,घुटन,जलन मिलती
कोई करुणाकरण नहीं मिलता
लुट रहे संस्कार शब्दों के
अर्थ का अवतरण नहीं मिलता
हाथ पर हाथ मत धरे रहिए
मुफ़्त पोषण-भरण नहीं मिलता
3
अपाहिज आस्थाएं दौड़तीं तक़दीर के पीछे
मगर तक़दीर चलती है सदा तदबीर के पीछे
पराजित सर्वदा होते रहे विक्षिप्त-उन्मादी
विजय चलती सुमन-माला लिए रणधीर के पीछे
गवाही दे रहे खुलकर लहू के अनगिनत धब्बे
घिनौनी लालसाएं पल रहीं जागीर के पीछे
हुआ हमला हमीं पर बाढ़-आंधी-धूप-वर्षा का
सुरक्षित रह गया उनका जहां प्राचीर के पीछे
व्यथा का बोझ अपने-आप हल्का हो गया सारा
मुख़ातिब हम हुए ज्योंही पराई पीर के पीछे
हिफ़ाजत जान की बाज़ी लगाकर भी करेंगे हम
निग़ाहें दुश्मनों की पड़ गयीं तस्वीर के पीछे
सुनहरा ख़्वाब देखा था कभी ‘घनश्याम’ ने बेशक
समर्पित-मन अत: तल्लीन है ताबीर के पीछे
4
भूत भय-भीरुता के भगा दीजिए
सुप्त निर्भीकता को जगा दीजिए
आंसुओं में न डूबे कहीं ज़िन्दगी
आंख में लाल सूरज उगा दीजिए
झाड़-झंखाड़ निर्मूल कर फेंकिए
बाग़ में पुष्प-पादप लगा दीजिए
रूठ जाए अगर चांदनी ग़म न हो
दीपिका से डगर जगमगा दीजिए
भूख से छटपटाते हुए हंस को
नेह के चंद मोती चुगा दीजिए
हो रही हों जहां पे घृणित साजिशें
आग उस कोठरी में लगा दीजिए
हो सके तो ज़रा प्यार ही दीजिए
किन्तु ‘घनश्याम’ को मत दग़ा दीजिए
5
दो दिलों के दरम्यां दूरी बढ़ाता कौन है
हमको आपस में लड़ाकर मुस्कुराता कौन है
आईए चलकर ज़रा हम आइने से पूछ लें
खुद से होकर रूबरू नज़रें चुराता कौन है
जिस घड़ी खुलकर सचाई सामने आ जाएगी
देखिएगा कौन हंसता, मुस्कुराता कौन है
रहनुमाई कुर्सियों तक ही सिमटकर रह गयी
आमजन के वास्ते ज़हमत उठाता कौन है
कौन है जो छीन लेता है हमारा हक़ तथा
जाल में अपने फ़रेबों के फंसाता कौन है
हम जहां-भर में जला देंगे मुहब्बत के चराग़
और देखेंगे इन्हें आकर बुझाता कौन है
वो नहीं ‘घनश्याम’ है तो कौन है आख़िर कहो
दर्द शेरों में पिरोकर गुनगुनाता कौन है
6
कोठी नहीं है एक अदद झोंपड़ी तो है
हैं मुश्किलें हज़ार लबों पर हंसी तो है
लड़ती है तीरगी से कभी हारती नहीं
दीये की रोशनी ही सही रोशनी तो है
ज़ालिम निडर है और ज़माना डरा हुआ
इसकी वज़ह कहीं न कहीं कुछ कमी तो है
क़ानून की नज़र से तो बच भी गये मगर
अपना गुनाह अपनी नज़र देखती तो है
हालात चाहे जो भी हों फिर भी हरेक मां
बच्चों की बेहतरी के लिए सोचती तो है
दौलत गयी, कुटुम्ब गये तो भी क्या गया ?
‘घनश्याम’ तेरे साथ तेरे साथ तेरी शायरी तो है
7
ये बात सही है कि सताए हुए हैं हम
अपना वज़ूद फिर भी बचाए हुए हैं हम
सुरसा की तरह गांव को पानी निगल गया
कुनबा तमाम सिर पे उठाए हुए हैं हम
मौसम है बेकसूर उसे कोसिए नहीं
उसको तो बदमिज़ाज़ बनाए हुए हैं हम
आईना दिखाने से कोई फायदा नहीं
चेहरे को मुखौटों में छुपाए हुए हैं हम
रिश्ते फ़ना हुए हैं मुसीबत के दौर में
अपने कभी थे आज पराए हुए हैं हम
क़ुदरत की बेशकीमती नेमत है जिन्दगी
उसको भी दाग़दार बनाए हुए हैं हम
हालात से डरे न पराजित हुए कभी
सिर बोझ की वज़ह से झुकाए हुए हैं हम
नापाक इरादों की नहीं दाल गलेगी
पहले से तपे और तपाए हुए हैं हम
बर्बादियों के घोर अंधेरों के बावज़ूद
उम्मीद के चराग़ जलाए हुए हैं हम
मुंगेर की ज़मीं तुझे सादर प्रणाम है
तू मां है तुझे दिल में बसाए हुए हैं हम
‘घनश्याम’ आ भी जाओ बड़ी देर हो ग ई
कबसे तुम्हारी आस लगाए हुए हैं हम
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परिचय : घनश्याम की दर्जनों ग़ज़लें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है.
रचनाकार विभिन्न संगठनों से सम्मानित हो चुके हैं.
संपर्क : बड़ी कोठी, लल्लू बाबू का कूंचा, पटना सिटी, पटना-800009.
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