ग़ज़ल
- डाॅ. अंजनी कुमार सुमन
नेमत है मन्नत है रब है सच में चारों धाम है माॅं
हर बच्चे का काबा काशी अल्लाह यीशू राम है माॅं
ममता की कोमल थपकी से या आँचल की छाॅंवों से
दूर बलाएँ रखती रहती रोज सुबह से शाम है माॅं
खुद आँसू पीती है पर बच्चों को अमृत देती है
इतने एहसानों के बदले कहाॅं माॅंगती दाम है माॅं
माॅं के मन में झरने सा ही होता है संकोच कहाॅं
लाख दुआएँ दे देती हैं जब कहते हैं काम है माॅं
नाम बहुत हो आया उनका जिनको अपना नाम दिया
अपने कठिन बुढापे में फिर क्यों रहती गुमनाम है माॅं