विशिष्ट ग़ज़लकार :: देवेंद्र मांझी

देवेंद्र मांझी की पांच ग़ज़लें
1
तमाम रात तड़प कर निकाल दी मैंने

क़ज़ा भी आई जो सर पे वो टाल दी मैंने

 

ज़माना मेरे तअक़्क़ुब में क्यों है सरगर्दां

कभी से ख़ाक ये दुनिया पे डाल दी मैंने

 

ख़बर है इश्क़ ने जीना सिखा दिया मुझको

ये ज़िन्दगी तेरे पैकर में ढाल दी मैंने

 

निकल भी जा तू उजालों में साये की सूरत

निक़ाब वक़्त के चेहरे पे डाल दी मैंने

 

पसीने आ गये “माँझी” क्यों नाव खेते हुए

वो ख़ूनी लह्र थी तट पर उछाल दी मैंने

शब्दार्थ–1-क़ज़ा – मृत्यु, मौत, 2. तअक़्क़ुब – पीछा करना, 3. सरगर्दां – पीछा करना अर्थात् लोग मेरे पीछे क्यों घूम रहे हैं, 4. पैकर – आकार, अस्तित्व, 5. साये की सूरत, परछाईं की तरह, 6.-निक़ाब – पर्दा, घूँघट।

2

मेरे क़रीब आके वो ऐसे गुज़र गये

जैसे मैं बेख़बर हूँ मगर बाख़बर गये

 

जंगल में चहचहः नहीं बस सायं-सायं है

शाखें ये पूछती हैं परिन्दे किधर गये

 

मौजे-बहार आके जलाती है क्यों मुझे

पतझड़ में अब तो पेड़ से पत्ते बिखर गये

 

वो लोग ख़ुशबुओं में ही पलकर जवाँ हुए

फूलों की अंजुमन को जो काँटों से भर गये

 

“माँझी” ये नाव रेत के दरिया में ले चलो

पथरीले पानियों में समुन्दर उतर गये

शब्दार्थ—1.-बाख़बर- मालूम होना अर्थात् मैं बेख़बर नहीं था अपितु मुझे मालूम था, 2. चहचह – चहकार, चहचाहट, 3. मौजे-बहार – बसन्त ऋतु की मस्त और खुशबूदार हवाएँ, 4. अंजुमन – सभा, गोष्ठी, महफ़िल

3

क्यों न इस शह्र को अब आग लगा दी जाए

महफ़िले-यार को शोलों से सज़ा दी जाए

 

अब तो आँखों में गुलिस्ताने-इरम चुभता है

क्यों न ऐ मौजे-सबा ख़ाक उड़ा दी जाये

 

चाँदनी रात में अनदेखे बदन जलते हैं

इनको बर्फ़ाब-पहाड़ों की हवा दी जाये

 

आज निकले हैं वो बन-ठन के क़यामत ढाने

आस्मां-मश्अले-ख़ुर्शीद बुझा दी जाये

 

कब से गर्दाब से तुम खेल रहे हो “माँझी”

अब तो ये नाव किनारे से लगा दी जाये

शब्दार्थ – 1. महफ़िले-यार – मित्र अथवा प्रेमपात्र की सभा 2. गुलिस्ताने-इरम-स्वर्ग का बाग़ अथवा उपवन 3. मौजे-सबा-समीर, सुबह की मंद और शीतल हवा, 4. बर्फ़ाब-पहाड़ों -बर्फ़ीले पहाड़ों 5. क़यामत – प्रलय, 6. आस्मां – मश्अले ख़ुर्शीद – आकाश की ज्योति अर्थात् सूरज. 7. गर्दाब – तूफ़ान

4

चुपचाप अंजुमन से कहाँ जा रहे हैं लोग

कुछ तो हुआ है ऐसा कि पछता रहे हैं लोग

 

वो कौन-सा गुनाह किया है कि सबके सब

इक-दूसरे को देखकर शरमा रहे हैं लोग

 

ढलने लगी है रात झरोखे तो खोल दे

तुझसे ही रौशनी का यक़ीं पा रहे हैं लोग

 

क्या बात है शबाब पे होते हुए बहार

बाग़ों के दरमियान भी मुरझा रहे हैं लोग

 

दरिया को किसने छू-के यूँ महका दिया है आज

“माँझी” इधर उधर से चले आ रहे हैं लोग

शब्दार्थ- 1. अंजुमन – महफ़िल, सभा; दुनिया 2. शबाब पे – जवानी पर अर्थात् बहार यानी बसन्तॠतु अपने चरमोत्कर्ष पर है.

5

हाथ उठाकर अगर दुआ माँगूँ

देने वाले मैं तुझसे क्या माँगूँ

 

इस अंधेरे में कौन देता है

रौशनी का अगर दीया माँगूँ

 

आ तो जाएँ वो सामने इक बार

उनसे मुआफ़ी मैं बेख़ता माँगूँ

 

किस तरह अब घुटी फ़ज़ाओं में

इन दरख़तों से मैं हवा माँगूँ

 

जब मैं तुझको पसंद करता हूँ

कौन-सी तुझसे शै जुदा माँगूँ

 

रोग बतला के चल दिए “माँझी”

शहर में किससे अब दवा माँगूँ

शब्दार्थ – 1. दुआ – ईश्वर से किसी चीज़ की प्रार्थना करना, 2. बेख़ता – बेक़सूर, निर्दोष होते हुए भी, 3. फ़ज़ाओं में – वातावरण में, 4. दरख्तों से=वृक्षों से, पेड़ों से.

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परिचय : देवेंद्र मांझी की कई ग़ज़लें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है.

संपर्क  : ए-402, श्री राधाकृष्णन ग्रुप हाऊसिंग सोसायटी, प्लाॅट नम्बर-23, सेक्टर-7, द्वारका, नयी दिल्ली–110075

मोबाइल: 9810793186

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