विशिष्ट ग़ज़लकार :: रमेश चन्द्र गोयल ‘प्रसून’

1
आँखों की तस्वीर अलग है आँसू की तस्वीर अलग
अपना-अपना हिस्सा सबका है सबकी तक़दीर अलग

प्यार किया हो जिसने केवल स्वाद वही जाने इसका
होठों की तासीर अलग है चोटों की तासीर अलग

तू जाने या मैं जानूँ यह अपनी-अपनी चाहत में
अपनी-अपनी ख़ुशी अलग है अपनी-अपनी पीर अलग

करवट-करवट नींद नहीं आती है जिन रातों को ख़ुद
उन रातों के ख़्वाब अलग हैं ख़्वाबों की ताबीर अलग

साँस-साँस अहसास जुड़े तो पाया महकी साँसों ने
साँस-साँस तहरीर अलग है साँस-साँस तफ़्सीर अलग

फ़र्क़ बहुत है एक फ़क़ीरी का उस एक अमीरी से
एक अलहदा जिसका रुतबा है जिसकी जाग़ीर अलग

अपनी-अपनी जंग ‘प्रसून’ पड़ेगी लड़नी ख़ुद से ही
लेकर अपनी-अपनी ढालें अपने-अपने तीर अलग

2
मैं तुम्हारे पास तक आता हूँ क्यों हर बार फिर
बिन कहे कुछ लौट ही जाता हूँ क्यों हर बार फिर

छू न पाया रू-ब-रू जिस नक़्श-रुख़ को मैं उसे
ग़ुम ख़यालों में छुए जाता हूँ क्यों हर बार फिर

साथ हो तुम हाथ लेकर हाथ में चलते हुए
और भी तन्हा हुए जाता हूँ क्यों हर बार फिर

ग़ौर मैनें ही दिया था कब तुम्हारे प्यार पर
सोचता हूँ और पछताता हूँ क्यों हर बार फिर

बालकों की ज़िद ज़रूरत की खरीदारी में ग़ुम
माँ की साड़ी भूल ही जाता हूँ क्यों हर बार फिर

बोलती आँखें पिता की देख कर मैं सामने
हड़बड़ा कर चुप गुज़र जाता हूँ क्यों हर बार फिर

भारती माँ की दशा को देखता हूँ जब ‘प्रसून’
1तड़फड़ाता ही उसे पाता हूँ क्यों हर बार फिर

3
इस तरह बरसात का आना न देखा जाएगा
भीग कर उसमें तेरा जाना न देखा जाएगा

सुर्ख़ कलियों का चमन में कनखियों की ओट से
यूँ लजाना और मुस्काना न देखा जाएगा

साँस में घुलने लगी है गंध जिसकी देह की
उस हवा का शोख़ इठलाना न देखा जाएगा

चाह जैसी बूँद का हाथों से पारे की तरह
फिर उछल कर फिर फिसल जाना न देखा जाएगा

वक़्त ने ही वक़्त पर जो वक़्त पहचाना नहीं
वक़्त का बेवक़्त पछताना न देखा जाएगा

ज़िन्दगी जिस काम की ख़ातिर मिली उससे ‘प्रसून’
तू रहा अनजान, अनजाना न देखा जाएगा

4
पहले आग लगा जाती है बस्ती में
ख़ूब हवा फिर इतराती है बस्ती में

अक्सर लुट-पिट जाते हैं जब लोग यहाँ
बात समझ में तब आती है बस्ती में

एक भरोसा बूँदों का देकर बदली
अंगारे-से बरसाती है बस्ती में

छूने को आकाश बढ़ाते वे जितनी
सीढ़ी कम पड़ती जाती है बस्ती में

चेहरे-चेहरे आँख अलग हर खोयी-सी
बात अलग कुछ कह जाती है बस्ती में

शर्म नहीं आती क्यों उसके बेटे को
माँ जब उस पर पछताती है बस्ती में

लोग ‘प्रसून’ ग़ज़ल के पीछे भाग रहे
वह बच कर निकली जाती है बस्ती में

5
घर को तो खंडर कहते हो
खंडर को तुम घर कहते हो

पत्थर जैसे इन्सां बन कर
इंसा को पत्थर कहते हो

सच तो सच है सच को फिर तुम
क्यों इतना डर कर कहते हो

उतनी ही उघड़ेंगी बातें
तुम जितनी ढक कर कहते हो

यह हँसने की बात नहीं है
जिसको तुम हँस कर कहते हो

प्यार किया है तो ‘प्रसून’ तुम
क्यों फिर बच-बच कर कहते हो
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परिचय : रमेश चन्द्र गोयल ‘प्रसून’ की ग़ज़ल और कविता के चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. ये ‘बुलन्दप्रभा’ हिन्दी त्रैमासिक साहित्यक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं.
संपर्क : रमेश प्रसून 4/75, सिविल लाइन्स, टेलीफोन केन्द्र के पीछे, बुलन्दशहर-203001 (उ०प्र०)
मोबाइल: 09259269007

 

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