विशिष्ट ग़ज़लकार : विज्ञान व्रत

1
कुछ नायाब ख़ज़ाने रख
ले मेरे अफ़साने रख

जिन का तू दीवाना हो
ऐसे कुछ दीवाने रख

आख़िर अपने घर में तो
अपने ठौर-ठिकाने रख

मुझ से मिलने-जुलने को
अपने पास बहाने रख

वरना गुम हो जाएगा
ख़ुद को ठीक-ठिकाने रख

2
आप कब किसके नहीं हैं
हम पता रखते नहीं हैं

जो पता तुम जानते हो
हम वहां रहते नहीं हैं

जानते हैं आपको हम
हां मगर कहते नहीं हैं

जो तसव्वुर था हमारा
आप तो वैसे नहीं हैं

बात करते हैं हमारी
जो हमें समझें नहीं हैं

3
मुझेस मिलकर फ़रज़ाने
लाैटे होकर दीवाने

शायद मुझ को समझे हों
आए थे जो समझाने

एक ज़रा सी ग़लती पर
दुनिया भर के जुर्माने

चेहरा तुलसी-चंदन-सा
आंखों में हैं मैख़ाने

रख अपने पैमानों को
मेरे अपने पैमाने

4
वो तब तक दरिया न हुआ
मैं जब तक सहरा न हुआ

वो जब तक मेरा न हुआ
मैं खुद भी अपना न हुआ

ख़ुद से भी मिलना न हुआ
लेकिन मैँ तनहा न हुआ

दुनिया में क्या-क्या न हुआ
मैँ उसकी दुनिया न हुआ

मैं अब तक खुद-सा न हुआ
ये होना होना न हुआ

5
मुझको अपने पास बुलाकर
तू भी अपने साथ रहा कर

अपनी हो तस्वीर बनाकर
देख न पाया आंख उठाकर

बे-उन्वान रहेंगी वर्ना
तहरीरों पर नाम लिखा कर

सिर्फ़ ढलूंगा औज़ारों में
देखो जो मुझको पिघलाकर

सूरज बनकर देख लिया ना
अब सूरज-सा रोज़ जलाकर

6
मुझको जब ऊंचाई दे
मुझको जमीं दिखाई दे

एक सदा ऐसी भी हो
मुझको साफ़ सुनाई भी दे

दूर रहूं मैं खुद से भी
मुझको वो तनहाई दे

एक खुदी भी मुझमें हो
मुझको अगर ख़ुदाई दे

ख़ुद को देखूं रोज़ नया
मुझको वो बीनाई दे

7
मैं बस्ती हो जाने तक
पहुंचा हूं वीराने तक

फ़र्ज़ अदा हो अाने तक
ज़िंदा हूं मर जाने तक

मैंने ख़ुद को ढूंढ़ा है
ख़ुद में गुम हो जाने तक

मेरा चर्चा तुझ-मुझ से
पहुंचा एक ज़माने तक

8
चुप रहता था क्या करता
वो तनहा था क्या करता

कोई भी पहचान नहीं
शहर नया था क्या करता

उसका कोई नाम न था
सिर्फ़ पता था क्या करता

आख़िर उसको मौत मिली
सच कहना था क्या करता

वैसे वो सुक़रात न था
ज़हर बचा था क्या करता

9
वो कभी मिलते नहीं हैं
पर हमें भूले नहीं हैं

छू हमें महसूस भी कर
देख हम सपने नहीं है

कल इमरात भी बनेंगे
हम फ़क़त नक़्शे नहीं है

इब्तिदा हमसे हुई थी
और हम पहले नहीं हैं

क्या कहा है आपने जो
हम अभी समझे नहीं हैं

10
सामने बैठे रहे तुम
हौसला देते रहे तुम

घूरते थे लोग तुमको
क्यूं मुझे पहने रहे तुम

यूं रहे ओझल सभी से
बस मुझे दिखते रहे तुम

मैं ग़ज़ल पढ़ता गया बस
अर्थ-से खुलते रहे तुम

जब तुम्हें सब सुन रहे थे
क्यूं मुझे सुनते रहे तुम
…………………………………………….
परिचय : तीन सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें, दोहे, लेख व समीक्षाएं प्रकाशित, शोध-प्रबंधों में ग़ज़लों का उल्लेख. बाहर धूप खड़ी है, चुप की आवाज सहित तीन ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित
संपर्क : तेड़ा, मेरठ, उत्तर प्रदेश

One thought on “विशिष्ट ग़ज़लकार : विज्ञान व्रत

  1. आंच एक अलग तरह की पत्रिका है। भावना जी को बधाई। ग़ज़ल पर यह अंक संग्रहणीय है, पठनीय तो है ही। संपादकीय में प्रेम को रेखांकित किया है। माफ़ कीजिए प्रेम और विवाह को जोड़ने का रिवाज प्रेम को एक कमोडिटी में बदल देता है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। यूं बहुत बढ़िया लिखा है। यह प्रेम के बारे में मेरा अपना सोचना है।

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