विशिष्ट ग़ज़लकार : समीर परिमल

1
शरारत है, शिकायत है, नज़ाक़त है, क़यामत है
ज़ुबां ख़ामोश है लेकिन निगाहों में मुहब्बत है

हवाओं में, फ़िज़ाओं में, बहारों में, नज़ारों में
वही ख़ुशबू, वही जादू, वही रौनक़ सलामत है

हया भी है, अदाएं भी, क़ज़ा भी है, दुआएं भी
हरेक अंदाज़ कहता है, ये चाहत है, ये चाहत है

वो रहबर है, वही मंज़िल, वो दरिया है, वही साहिल
वो दर्दे-दिल, वही मरहम, ख़ुदा भी है, इबादत है

ज़माना गर कहे मुझको दीवाना, ग़म नहीं ‘परिमल’
जो समझो तो शराफ़त है, न समझो तो बग़ावत है

2
रहगुज़र से तेरी गुज़रते हैं
तुझमें जीते हैं, ख़ुद में मरते हैं

जब निगाहों से बात करते हैं
मुस्कुराते हैं, आह भरते हैं

वो ख़यालों में जो उतरते हैं
ख़ुशबुओं की तरह बिखरते हैं

इश्क़ की आग का करिश्मा है
जो भी जलते हैं वो निखरते हैं

ग़र मुहब्बत गुनाह है ‘परिमल’
फ़ख्र है, हम गुनाह करते हैं

3
चलो आज झूठे भरम तोड़ दें हम
ये पत्थर के सारे सनम तोड़ दें हम

ख़यालों में आने का वादा करो तो
ज़माने से रिश्ता-ए-ग़म तोड़ दें हम

किसी दिन नज़र से पिलाकर तो देखो
क़सम है कि सारी क़सम तोड़ दें हम

तेरे नाम इक शे’र हो गर मुकम्मल
उसी पल ये अपना क़लम तोड़ दें हम

लबों पर तुम्हारे तबस्सुम सजा कर
मुहब्बत के साये में दम तोड़ दें हम

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