हातिम जावेद की ग़ज़लें
1
इक नज़र आपकी हो गई
ज़िंदगी ज़िंदगी हो गई
आपने लफ़्ज़े-कुन कह दिया
सारी कारागरी हो गई
आप की दी हुई ज़िंदगी
लीजिए आपकी हो गई
वो जुदा क्या हुए, ज़ीस्त की
बाँसुरी बेसुरी हो गई
ओढ़ कर अज़्म जब तल पड़े
चार-सू रौशनी हो गई
वो न आए अयादत को भी
ऐसी क्या बेबसी हो गई
सब्र को गोद जबसे लिया
मेह्रबाँ ज़िंदगी हो गई
अब तो बे-बह्र या बेवज़न
जो कहो शायरी हो गई
2
ज़िंदा मंज़िल की आस रहने दे
अपने पाँवों में प्यास रहने दे
मेरी चमड़ी उधेड़ ले लेकिन
आबरू का लिबास रहने दे
तल्ख़ियाँ मत उंडेल रिश्तों पर
घर में थोड़ी मिठास रहने दे
मुश्किलें आई हैं तो जाएँगी
हौसले मत उदास रहने दे
आदमी है तो आदमीयत भी
ऐ बशर अपने पास रहने दे
3
वफ़ा के गुल्सिताँ से तोड़ लाए
समर रंजो-अलम के तोड़ लाए
मैं हाथों से पकड़ पाया न जुगनू
ज़बाँ से वो सितारे तोड़ लाए
बड़ी मुश्किल से उनकी चाहतों के
फ़क़त दो चार लम्हे तोड़ लाए
चमन से यादों के हम जब भी गुज़रे
हरे ज़ख़्मों के पत्ते तोड़ लाए
ग़रीबी, बेबसी , बेरोज़गारी
तुम्हारे दर से बच्चे तोड़ लाए
रयाकारी , अदाकारी , तअस्सुब
सियासत के शजर से तोड़ लाए
4
ख़ून में डूबी मेरी हसरत मिली
इस अदा से आपकी चाहत मिली
ज़िंदगी के पाँव दाबे उम्र भर
तब बदन की क़ैद से मोहलत मिली
जी लिए ख़्वाबों के तल्वे चाट कर
हम ग़रीबों को भी क्या क़िस्मत मिली
धर्म पढ़ने में गँवा दी उसने उम्र
धर्म करने की कहाँ फ़ुर्सत मिली
पी लिया नन्हे फ़रिश्तों का लहू
तब अमीरे-शह्र को राहत मिली
6
लहू नदियों का पीता आ रहा है
समन्दर ने अभी तक क्या किया है
उधर हैं ख़्वाहिशें अनशन पे बैठी
इधर मजबूरियों का जमघटा है
तेरी जन्नत तो घर में रो रही है
कहाँ जन्नत को बाहर ढूँढता है
तबस्सुम पाल कर रखिए लबों पर
ये लोगों में मुहब्बत बाँटता है
फ़क़त दो रोटियाँ माँगी थीं उसने
अभी तक मौत से वो लड़ रहा है
7
उनके जज़्बात से गुफ़्तगू हो गई
दिल के हालात से गुफ़्तगू हो गई
वो मेरे सब्र से जीत सकता नहीं
ग़म की औक़ात से गुफ़्तगू हो गई
भीख में रौशनी मांग लाई है वो
चांदनी रात से गुफ़्तगू हो गई
मेरे क़दमों से लिपटे रहेंगे अभी
तल्ख़ लम्हात से गुफ़्तगू हो गई
ख़्वाब उनके धरे के धरे रह गए
और हवालात से गुफ़्तगू हो गई
8
एक अंजान सफ़र पर निकला
मैं तेरी याद पहन कर निकला
चोट खा खा के दुआएँ लौटीं
दिसको पूजा वही पत्थर निकला
पी गया ख़ून पसीना मेरा
कितना कमज़र्फ़ समंदर निकला
जब भी निकला वो अयादत को मेरी
ले के अल्फ़ाज़ के ख़ंजर निकला
मैं तेरी दीद की हसरत ओढ़े
जिस्म की क़ैद से बाहर निकला
मेरी मैयत को लगाया कांधा
ग़ैर था आप से बेहतर निकला
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परिचय : चर्चित ग़ज़लकार. पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लों का निरंतर प्रकाशन
वक़्त की हथेली में ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित
संप्रति : मेडिकल अॉफ़िसर, स्वास्थ्य विभाग,
संपर्क : विशम्भर पुर, पो.-मेहसी, ज़िला- पूर्वी चम्पारण, बिहार
मो.- 9430528296, 9199844777
ई-मेल:- hatimjawed@gmail.com
पिता:- स्व.शहादत हुसैन ‘जिगर’ मेहसवी
पत्नी:- महजबीन जावेद
साहित्यिक गुरू: – ‘जिगर’ मेहसवी
जन्म तिथि:- 9 जनवरी 1963
शैक्षणिक योग्यता:- बी.एच.एम.एस.
(बिहार सरकार )
प्रकाशित पुस्तक:- ” स्थाई पता:- ग्राम-