1
काम जिनके अमीर जैसे हैं
देखने में कबीर जैसे हैं
रास्ते ये लकीर जैसे हैं
और हम सब फ़कीर जैसे हैं
एक झोंके की उम्र है अपनी
खुशबुओं के शरीर जैसे हैं
साथ चलने से दिल बहलता है
हम सभी राहगीर जैसे हैं
दिल के हालात क्या बताऊँ मैं
आजकल काश्मीर जैसे हैं
दीनो-मजहब के कैदखानों में
आजकल हम असीर जैसे हैं
माँगकर खा रहा है वो लेकिन
ठाट उसके अमीर जैसे हैं
शेर कहना ’समीप’ क्या जाने
ये तो गूँगे की पीर जैसे हैं
2
ये न पूछो है गोलमाल कहाँ
ये बताओ है कोतवाल कहाँ
लूटकर ले गया घना बादल
मोेतियों से भरा वो थाल कहाँ
ख़ुद से मिलना तो हो नहीं पाता
पूछता तेरे हालचाल कहाँ
हाँफते हाँफते ही घर पहुँचूँ
बच रहा रोज़ बाल बाल कहाँ
आप चिपके हुए हैं टी वी से
फिर रहे घर के नौनिहाल कहाँ
आपकी सभ्यशिष्ट भाषा में
कोई भी जेनुइन सवाल कहाँ
अब न ज़हनों में कोई आँच रही
सोच में भी वही उबाल कहाँ
3
जिसे भी साथ लिया मैंने हमसफ़र की तरह
वही बताने लगा खुद को राहबर की तरह
वो मेरा दोस्त है मेरा अज़ीज़ है फिर भी
मुझे सिखाता है चालाकियाँ हुनर की तरह
वो शाख शाख मेरी काटकर जलाता है
मुझे समझता है सूखे हुए शजर की तरह
महानगर का हुआ जब से वो यकीं से गया
बदलता रहता है हर रोज पोस्टर की तरह
बताओ कैसे मुहब्बत बचाये रक्खे कोई
घृणाएँ फैल रही हों जहाँ ज़हर की तरह
न हौसले की कमी है न योग्यता कम है
बस इक लिहाज का साया है दिल में डर की तरह
कभी उदासियों की राख झाड़कर तो देख
चमक उठेगा तेरा हौसला शरर की तरह
4
प्यार के सौदाइयों को आप क्या जानें हुजूर
वक्त की सच्चाइयों को आप क्या जानें हुजूर
किस तरह इस गगनचुम्बी सभ्यता ने ढँक लिया
गाँव की अमराइयों को आप क्या जानें हुजूर
ख्वाहिशों की रौशनी है आपके चारों तरफ
दर्द की परछाइयों को आप क्या जानें हुजूर
व्यक्तिपूजा, दुव्र्यवस्था, खौफ, नफरत औ‘ जनून
देश की इन खाइयों को आप क्या जानें हुजूर
आप तो महलों से बाहर आज तक आए नहीं
फिर मेरी कठिनाइयों को आप क्या जानें हुजूर
फिर कहाँ दुख दर्द चीखें मौत बिखरा दें ये लोग
खौफ के अनुयायियों को आप क्या जानें हुजूर
आप मानें या न मानें रुत ये बदलेगी जरूर
सब्र का गहराइयों को आप क्या जानें हुजूर
5
तेरे मन तक आ पहुँचे
लो गुलशन तक आ पहुँचे
मन के पंछी थके थके
घर आँगन तक आ पहुँचे
निकले थे पूजन को. हम
सम्मोहन तक आ पहुँचे
ख़ूनी पंजे वहशत के
अंतर्मन तक आ पहुँचे
बैठ के सोचो कैसे हम
इस अनबन तक आ पहुँचे
अमृतघट भी निकलेगा
हम मंथन तक आ पहुँचे
6
आप ताबीज डाल रक्खे हैं
वाह क्या खौफ पाल रक्खे हैं
अर्थ कैसे निकाल रक्खे हैं
बात में पेच डाल रक्खे हैं
वक्त के इस बड़े पिटारे में
जाने क्या क्या सवाल रक्खे हैं
एक दाना नहीं है खाने को
सारे बर्तन खँगाल रक्खे हैं
चोट पर चोट कर रहा है वो
फिर भी हम बोलचाल रक्खे हैं
डूबने से उसे बचा जिसने
हाथ बाहर निकाल रक्खे है
फिक्र करने की क्या जरूरत है
हौसले सब ख्याल रक्खे हैं
याद का पेड़ कट गया लेकिन
उसकी हम एक डाल रक्खे हैं
7
है पंख तो भीतर उड़ान ज़िंदा है
मेरी ज़मीन मेरा आसमान ज़िंदा है
भले ही गाँव मेरा छिन गया शहर आकर
ज़हन में गाँव का अब भी मकान ज़िंदा है
सिसकती गाँव की नदिया बताएगी तुझको
सताई लड़की का उसमें उसमें बयान ज़िंदा है
सही बताऊँ तो दद्दा मुझे लगें जैसे
उफ़नती नदिया में कोई चटान जिंदा है
मिली है रोज़ सज़ा मुझको सत्य कहने की
मगर में ख्.ाुश हूँ मेरा स्वाभिमान जिं़दा है
चलो शहर में तुम्हें अन्न मिल रहा तो है
पता तो कर कि वो कैसे किसान जिं़दा है
’समीप’ नफ़रती चूल्हे पे मत रखो ये तनाव
अभी भी आग यहाँ है उफ़ान ज़िंदा है
8
पहले जड़ें तराश के बौना बनाइए
फिर बोनज़ाई पेड़ घरों में सजाइए
पहले दिलों के बीच की दूरी तो कम करें
फिर इंकलाबियों के परचम उठाइये
लेटे हुए हैं साब तो सुविधा की सेज पर
दुखदर्द अपने सुर में सजाकर सुनाइये
जो चाहते हो आपकी फरियाद वो सुने
जालिम के आगे आप जरा गिड़गिडाइये
उस जलज़ले में लोग मरे आप तो बचे
घी के दिये जलाइए खुशियाँ मनाइये
इस ओर नागनाथ हैं उस ओर साँपनाथ
इनकोे जिताइयेकभी उनको जिताइये
बिकना पड़ेगा आपको बाजार में ’समीप’
चाहे उसूल ओढ़िये या फिर बिछाइए
9
ये न कर तू वो न कर वैसा न कर
ज़िंदगी हर वक्त यूँ टोका न कर
ख्.वाब हैं तो ख्.वाब ही दुनिया को दे
तू जमा कर के इन्हें ज़ाया न कर
इस समय हम काँच के केबिन में हैं
कम से कम इस वक्त तो झगड़ा न कर
ये शहर है काग़ज़ी फूलों का बाग़
खुशबुओं का तू यहाँ पीछा न कर
किस तरह आया ये रुपया,ठाटबाट
पूछकर सचयार शर्मिदा न कर
मत दिखा यादों का मुझको एलबम
तू पुराने ज़ख्.म फिर ताज़ा न कर
जानता हूँ मुझसे तू नाराज़ है
देखकर फिर भी यूँ अनदेखा न कर
खुदकुशी का लोग पूछेंगे सबब
हे प्रभू ! मुझको तू अब अच्छा न कर
10
आप ताबीज डाल रक्खे हैं
वाह क्या खौफ पाल रक्खे हैं
अर्थ कैसे निकाल रक्खे हैं
बात में पेच डाल रक्खे हैं
वक्त के इस बड़े पिटारे में
जाने क्या क्या सवाल रक्खे हैं
एक दाना नहीं है खाने को
सारे बर्तन खँगाल रक्खे हैं
चोट पर चोट कर रहा है वो
फिर भी हम बोलचाल रक्खे हैं
डूबने से उसे बचा जिसने
हाथ बाहर निकाल रक्खे है
फिक्र करने की क्या जरूरत है
हौसले सब ख्याल रक्खे हैं
याद का पेड़ कट गया लेकिन
उसकी हम एक डाल रक्खे हैं
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परिचय : हरेराम समीप
ग़ज़ल के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम
कई किताबें प्रकाशित
संपर्क : 395 सेक्टर 8 फरीदाबाद 121006
मो 9871691313, 8। 10। 2017