विशिष्ट ग़ज़लकार :: सुशील साहिल

सुशील साहिल की पांच ग़ज़लें

1

चराग़े-ज़ीस्त का साया सफ़र में निकला है

मेरे वजूद का आधा सफ़र में निकला है

 

नज़र से खींच के तूफ़ाँ की सारी तस्वीरें

दयारे-हिन्द का बेटा सफ़र में निकला है

 

न कोई शोर न हलचल न कुछ निशान कहीं

न जाने कौन-सा दरिया सफ़र में निकला है

 

कोई सवाल चराग़ों के आगे मत रखना

अभी हवाओ का झोंका सफ़र में निकला है

 

जो गिर पड़े हो नदी में तो तैरकर निकलो

अभी सहारे का तिनका सफ़र में निकला है

 

वो अपने साथ समुन्दर भी खींच लाएगा

हमारी प्यास का क़तरा सफ़र में निकला है

2

एक ऐसा भी तो सितारा हो

चाँद-सूरज से भी जो प्यारा हो

 

ऐसा दरिया मिले तो बतलाना

जिसका बस एक ही किनारा हो

 

उसका मुँह फेरकर चले जाना

क्या पता, इक नया इशारा हो

 

ख़ाक़ हसरत की छानता हूँ मैं

ज़िन्दा शायद कोई शरारा हो

 

सब्र करते रहो क़यामत तक

आख़िरी दाँव ही तुम्हारा हो

 

तेरी ख़ुशियों पे हो न हो ‘साहिल’

तेरे ग़म पर तो हक़ हमारा हो

3

लब से, मासूमों की मुस्कान चुराने वाले

कितने बेदर्द हैं अरमान चुराने वाले

 

इस तरफ़ राह से चुनते हैं ये बच्चे कचरा

उस तरफ़ बैठे हैं सामान चुराने वाले

 

ये ख़बर आज ही टकराई कई कानों से

आये हैं शहर में कुछ कान चुराने वाले

 

चौड़े रस्ते का जो देते हैं भरोसा तुमको

बस वही लोग हैं दालान चुराने वाले

 

मालो-ज़र और कई चोर थे मोबाईल के

अब कहाँ मिलते हैं दीवान चुराने वाले

 

आजकल आपको पहचान दिलाने की जगह

आ गए आप की पहचान चुराने वाले

 

होती दानाई जो, ‘साहिल’ को न करते वापस

कैसे नादान हैं गुलदान चुराने वाले

4

हुआ नहीं है फ़क़त एक काम मुद्दत से

न आया लब पे तेरे मेरा नाम मुद्दत से

 

नहीं मिली है दिवाली को ईद की दावत

ख़फ़ा-ख़फ़ा हैं दुआ और सलाम मुद्दत से

 

वो क्या बताएगा कितनी मिठास है उसमें

जो पी रहा है करेले का जाम मुद्दत से

 

वो पानी पीके भी दरिया से ज़ात पूछे है

पचा रहे हैं जो खाना हराम मुद्दत से

 

क्यों पाँव रखने को कांधा तलाश करता है

यहीं खड़ा है तेरा इक ग़ुलाम मुद्दत से

 

जिसे गुज़ार के ‘साहिल’ फ़ना मैं हो जाऊं

मिली नहीं है वही एक शाम मुद्दत से

 

5

बदनामी से हम समझौता कर बैठे

अपना दुख औरों से साझा कर बैठे

 

हाथों की सोई रेखाएँ जाग उठीं

जब अपनी तक़दीर से सौदा कर बैठे

 

जब कुछ हाथ न आया भूखे शेरों को

अपने ही बच्चों पर हमला कर बैठे

 

हमने सारे ग़म अपने ही पास रखे

सुख को लेकिन आधा-आधा कर बैठे

 

फिर क्यों सागर पर हम शीष नवाते हैं

वो तो अपना पानी खारा कर बैठे

 

हरसू जिनकी बदनामी के चर्चे हैं

हम उनके ही घर में रिश्ता कर बैठे

 

जब तक हम ऊँचाई तक पहुँचे ‘साहिल’

वो आसन आकाश से ऊँचा कर बैठे

……………………………………..

परिचय – सुशील साहिल की कई गजलें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है.

संपर्क – डी-18, ऊर्जानगर कॉलोनी

पोस्ट: महागामा

जिला: गोड्डा -814154

झारखण्ड

मो: 9955379103

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *