विशिष्ट ग़ज़लकार : दुष्यंत कुमार

AANCH

दुष्यंत कुमार की दस ग़ज़लें :

1

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।

 

एक जंगल है तेरी आँखों में,

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।

 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

 

हर तरफ़ एतराज़ होता है,

मैं अगर रोशनी में आता हूँ।

 

एक बाज़ू उखड़ गया जब से,

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ।

 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,

आज कितने क़रीब पाता हूँ।

 

कौन ये फ़ासला निभाएगा,

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।

 

2

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए

 

जले जो रेत में तलवे तो हम ने ये देखा

बहुत से लोग वहीं छट-पटा के बैठ गए

 

खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को

सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए

 

लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो

शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए

 

ये सोच कर कि दरख़्तों में छाँव होती है

यहाँ बबूल के साए में आ के बैठ गए

 

3

चाँदनी छत पे चल रही होगी

अब अकेली टहल रही होगी

 

फिर मिरा ज़िक्र आ गया होगा

बर्फ़ सी वो पिघल रही होगी

 

कल का सपना बहुत सुहाना था

ये उदासी न कल रही होगी

 

सोचता हूँ कि बंद कमरे में

एक शम्अ सी जल रही होगी

 

शहर की भीड़-भाड़ से बच कर

तू गली से निकल रही होगी

 

आज बुनियाद थरथराती है

वो दुआ फूल-फल रही होगी

 

तेरे गहनों सी खन्खनाती थी

बाजरे की फ़सल रही होगी

 

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया

उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी

4

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

 

वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को

क़ाएदे क़ानून समझाने लगे हैं

 

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है

जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं

 

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने

इस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं

 

मौलवी से डाँट खा कर अहल-ए-मकतब

फिर उसी आयात को दोहराने लगे हैं

 

अब नई तहज़ीब के पेश-ए-नज़र हम

आदमी को भून कर खाने लगे हैं

5.

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

 

सूर्य हम ने भी नहीं देखा सुबह से

क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है

 

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है

हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है

 

पक्ष-ओ-प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं

बात इतनी है कि कोई पुल बना है

 

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

 

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था

शौक़ से डूबे जिसे भी डूबना है

 

दोस्तो अब मंच पर सुविधा नहीं है

आज-कल नेपथ्य में सम्भावना है

 

6

ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती

ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती

 

इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं

जिन में बस कर नमी नहीं जाती

 

देखिए उस तरफ़ उजाला है

जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

 

शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना

बाम तक चाँदनी नहीं जाती

 

एक आदत सी बन गई है तू

और आदत कभी नहीं जाती

 

मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन

इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती

 

मुझ को ईसा बना दिया तुम ने

अब शिकायत भी की नहीं जाती

 

7

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

 

8

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है

वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है

सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर
झोले में उस के पास कोई संविधान है

उस सर-फिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है

फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए
हम को पता नहीं था कि इतना ढलान है

देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं
पावँ तले ज़मीन है या आसमान है

वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है

9

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है

निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

10

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उस के बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

 

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