विशिष्ट ग़ज़लकार :: अमर पंकज

अमर पंकज की पांच ग़ज़लें

1

मुश्किल था पूरा सच लिखना तो आधा हर बार लिखा,
ज़हर पिया मैंने नित लेकिन सुंदर है संसार लिखा।

शीश उठाकर जी ले निर्बल है इतना आसान नहीं,
मैंने भी तो इसीलिए है जीत बताकर हार लिखा।

बाढ़ नदी की लेकर आयी मुझको तो इस पार मगर,
मक्कारी लोगों की मैंने देखी जो उस पार लिखा।

सैर कराए नंदन वन की सुरभि पवन लेकर आये,
साथ मेरे ही रह तू पाहुँन, ख़त में ये सौ बार लिखा।

संत्रास, घुटन, अपमान, व्यथा, दर्द ‘अमर’ की गाथा है,
लिक्खा मैंने भोगा सच तू कहना मत बेकार लिखा।

2
अब है मुझको दूर जाना, प्यार से रुख़सत करो,
लौटकर होगा न आना, प्यार से रुख़सत करो।

इस ज़मीं से उस फ़लक तक, सिर्फ़ तुम ही दिख रहे,
अश्क फिर क्यों है बहाना, प्यार से रुख़सत करो।

चाँद को चाहा जो मैंने, जुर्म है तो दो सज़ा,
हादसा है ये पुराना, प्यार से रुख़सत करो।

वक़्त से जो चंद लम्हों की मुझे मोहलत मिली,
जी लिया गाकर तराना, प्यार से रुख़सत करो।

प्यार में सबकुछ लुटाने, का ‘अमर’ इल्ज़ाम है,
चाहे कुछ बोले ज़माना, प्यार से रुख़सत करो।

3
क्या हुआ क्या बताता रहा उम्र भर
ग़म हँसी में उड़ाता रहा उम्र भर।

हाल अपना किसी को जताता नहीं,
अश्क अपने छिपाता रहा उम्र भर।

साथ चलते रहे पर मिले हम नहीं,
जिस्मो-जाँ मैं जलाता रहा उम्र भर।

दर्मियाँ बढ़ गये और भी फ़ासले,
वक़्त गुज़रा सताता रहा उम्र भर।

रेत पर मैं चला बीहड़ों में रहा,
ग़म की गठरी उठाता रहा उम्र भर।

आँधियाँ गर थमे तो बता दूँ तुझे,
रस्मे-उल्फ़त निभाता रहा उम्र भर।

रंज-ए-फ़ुर्क़त ‘अमर’ झेलता ही रहा,
घर धुएँ का बनाता रहा उम्र भर।

4
झूठ हर्षित हो रहा है आज के इस दौर में,
सत्य मूर्छित हो रहा है आज के इस दौर में।

अब सियासत ही सफ़लता की कसौटी बन गयी,
मन पराजित हो रहा है आज के इस दौर में।

शोर करती है सफलता श्रम बिना जो मिल रही,
मूढ़ मुखरित हो रहा है आज के इस दौर में।

जो मुखर था और करता प्रश्न था हर दौर से,
वह अचंभित हो रहा है आज के इस दौर में।

चढ़ रहे नव देवकुल पर नफ़रतों के फूल फल,
द्वेष अर्पित हो रहा है आज के इस दौर में।

सिर्फ़ जो है पात्र प्रहसन का बना है शूर और,
रोज चर्चित हो रहा है आज के इस दौर में।

क्यों ‘अमर’ लगता मुझे है हर तरफ़ बस स्वार्थ ही,
मूल्य विकसित हो रहा है आज के इस दौर में।

5
ज़िन्दगी कैसी रही है वक़्त ही बतलाएगा,
दास्तां जो अनकही है वक़्त ही बतलाएगा।

लाज की दीवार थी बन फ़ासला जो दरमियां,
जाने कैसे वह ढही है वक़्त ही बतलाएगा।

आँधियों ने घर उजाड़ा ख़्वाब का माना मगर,
दिल के कोने में वही है वक़्त ही बतलाएगा।

क्या मिला क्या मिल न पाया ज़िन्दगी के खेल में,
क्या ग़लत था क्या सही है वक़्त ही बतलाएगा।

हम झुलसते ही रहे जिस आग में हर दिन ‘अमर’,
बन वही गंगा बही है वक़्त ही बतलाएगा।

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परिचय : अमर पंकज के तीन ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हैं. साहित्यक योगदान के  लिये दर्जनों सम्मान से नवाजे जा चुके हैं

संप्रति – दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानन्द महाविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्यापन।

आवासीय पता : 207, रिचमण्ड पार्क, सैक्टर-6, वसुन्धरा, ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश (भारत), पिन-201012
चलभाष : 9871603621
ईमेल : amarpankajjha@gmail.com

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