डॉ. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’ की छह ग़ज़लें
1
लाया हूँ मैं अभिसार में भीगी हुई ग़ज़लें ,
दिल के किसी तहख़ाने से निकली हुई ग़ज़लें ।
आती हैं ये लोबान की ख़ुशबू में महकती ,
रुख़सार की गर्मी से पिघलती हुई ग़ज़लें ।
ये तल्ख़ कभी चुभती कभी मीठी लगे हैं ,
ये सच की कसौटी पे तपाई हुई ग़ज़लें ।
थोड़ी-सी ख़ुराफ़ात मुझे इश्क़ अता कर ,
हरदम कहूँ अहसास में दहकी हुई ग़ज़लें ।
हरदम मेरे चैतन्य को ये बोध हुआ है ,
ज़िंदा हैं हक़ीक़त में ये , जागी हुई ग़ज़लें ।
नदियों की कोई बात न साहिल, न समुंदर,
बादल की तरह आती हैं उड़ती हुई ग़ज़लें ।
इन आईनों के सच को ये स्वीकार करे क्यों ,
ये तो हैं मेरे अक्स में डूबी हुई ग़ज़लें ।
जैसी भी हैं , ये हैं , मेरे मन का ही तो दर्पण ,
झूठी नहीं हैं सच में नहाई हुई ग़ज़लें ।
2
हैं बहुत लोग कि जो याद करेंगे मुझको ,
और कुछ हैं कि जो अपवाद करेंगे मुझको ।
जो समझते ही नहीं प्यार की भाषा मेरी ,
आप उनके लिए अनुवाद करेंगे मुझको ?
जीते जी चैन से रहने न दिया उन सब ने ,
बाद मरने के भी बर्बाद करेंगे मुझको ।
मेरे विश्वास मेरा साथ निभाते हैं सदा ,
ये ही दुख दर्द में फ़ौलाद करेंगे मुझको ।
मैं मुक़र्रर ही रहूँगा उन्हीं अपनों के लिए ,
मेरी ग़ज़लों से जो इरशाद करेंगे मुझको ।
जिनके जी भर के सँवारे हैं अनेकों सपने ,
सोच में अपनी वो बुनियाद करेंगे मुझको ।
एक दिन शम्स तो मेरा भी मुनव्वर होगा ,
अब ‘शलभ’ दोस्त ही अनुनाद करेंगे मुझको ।
3
सोचते हैं शहर वाले गाँव सब जन्नत में हैं ,
गाँव के सब रास्ते , पगडंडियाँ दहशत में हैं ।
‘राम’ रच दें व्यूह ऐसा जीतें फिर कुर्सी की जंग
‘राजा-संन्यासी-पियादे’ सब बड़ी ‘उज़लत’ में हैं ।
चाँद पर जो यान भेजा रोटियाँ बरसायेगा ,
सबके सब मज़दूर मुफ़लिस दंग हैं, हैरत में हैं ।
जब से “वेनिस” बन गया जल में ‘खड़ा’ सारा नगर ,
नेता-ठेकेदार-अफ़सर , ख़ूब अब फ़ुरसत में हैं ।
वक़्त हो तो आपके मैं कुंतलों को बांध दूँ ?
रंग बिरहा के भी सारे इस बरस रंगत में हैं ।
सीरतें तो आईने दिखला नहीं पाते कभी ,
इसलिए सब सूरतें ही शान-और-शौक़त में हैं ।
गाँव के सब ताल पनघट तो हैं अब सूने पड़े ,
औ ‘शलभ’-से इश्क़ वाले आज भी फ़ुरकत में हैं ।
4
प्रेम की इस आंच से मैं इस क़दर शीतल हुआ ,
रेत का दरया कोई ज्यों बाढ़ में ओझल हुआ ।
शिव जटाओं से निकल कर जैसे गंगाजल हुआ ,
मैं तेरे सानिध्य में रह-रह के ही संदल हुआ ।
जिसने गुड़धानी ही बाँटी देवता के नाम पर ,
वो ‘मसीहा’ क्यूँ ज़माने भर को ही विषफल हुआ ।
बादलों को रास जब आई न उनकी ख़्वाहिशें ,
बारिशें इतनी हुईं बेहाल सब जलथल हुआ ।
“सूर्य” दरबारी हुआ जब ‘बादशाहों’ के यहाँ ,
आमजन की ज़िंदगी का रास्ता दलदल हुआ ।
‘साँस के व्यापार’ में भी अवसरों की है तलाश ,
ये लो गिद्धो ! अब तो सारा देश ही मरुथल हुआ ।
अनवरत चलते रहे जो पाँवों के छालों के साथ ,
उनका अपना हौसला ही राह की मख़मल हुआ ।
बंद दरवाज़े, नहीं सुनते जो मुफ़लिस की पुकार ,
मैं ‘शलभ’ उन के लिए प्रतिशोध की साँकल हुआ ।
5
हमारे दर्द को पहचानिये , साँझा तो करिए जी ,
ग़मों का बोझ बढ़ता जा रहा , आधा तो करिए जी।
मरुस्थल की तरह आँखें हमारी ख़ुश्क प्यासी हैं ,
बहा कर नेह की नदिया इन्हें ज़िंदा तो करिए जी ।
ज़रा फिर लौटिए इस ‘भूतिया’- से ताल पीपल पर,
यहाँ जो रूह भटके है, उसे चेहरा तो करिए जी ।
हमारी प्यास सदियों की समुन्दर से नहीं बुझती ,
मिटाने को इसे ख़ुद को , कभी दरिया तो करिए जी ।
तो क्यों पत्थर बने रहिए , शिलाओं-सी भी चुप्पी क्यों ,
है तन्हा शाश्वत मन यह , इसे बच्चा तो करिए जी ।
सदी क्या बीत जायेगी मिलन की राह ही तकते,
अधूरी इस कहानी को कभी पूरा तो करिए जी ।
निशां तक प्रेम का अब भी जहाँ ढूँढ़े नहीं मिलता ,
उसी सहरा ‘शलभ’ होगा , वहाँ आया तो करिए जी ।
6
क्या तुम्हारे प्यार के इकरार का हिस्सा बनूँ ,
या तुम्हारे झूठ के हथियार का हिस्सा बनूँ ।
क़त्ल-ओ-ग़ारत ! जो बिना तलवार करवाते हो तुम ,
सोची-समझी ‘सोच’ की उस धार का हिस्सा बनूँ ?
कश्तियों का तो भँवर में डूबना निश्चित ही है ,
क्या दिखावे के लिए पतवार का हिस्सा बनूँ ।
ख़ूब लम्बी है ‘अमावस की घड़ी’ अब मुल्क पर ,
मैं ! बता कैसे ? तेरे दरबार का हिस्सा बनूँ ।
ऐ सनम ! मुझको छुपा ले ज़ुल्फ़ के कुहसार में ,
मैं तेरी ज़ीनत, तेरे रुख़सार का हिस्सा बनूँ ।
हे ‘विराट अवतार’ आकर मुझको अंगीकार कर ,
रूह में उतरूँ ‘तेरे अवतार’ का हिस्सा बनूँ ।
मैं ‘शलभ’ निस्सीम हूँ, बेशक पतंगा हूँ मगर ,
शम्अ जब भी जल उठे अंगार का हिस्सा बनूँ ।
परिंदें रेगज़ारों के तो हैं प्यासे जनम भर के ,
मुँडेरों पर ‘शलभ’ उनके लिए बर्तन भरा रखना ।
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परिचय : डॉ. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’ चर्चित ग़ज़लकार हैं. इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है
संपर्क – गुरुग्राम, हरियाणा
चलभाष – 9811169069