ख़ास कलम :: हेमा सिंह

माँ

 – हेमा सिंह

 

मैं  रोई  तो माँ भी

मेरे दर्द से कितना  रोई थी !

जीवन दान मुझे देने को,

आशीषों के ताग पिरोई थी।

 

मेरे दर्द को देख न जाने,

कितनी रातें न सोई थी।

मेरी एक मुस्कान से वो,

अपना सारा दुख धोई थी।

 

मेरी हर जिद वो मान लेती,

कितनी प्यारी वो भोली  थी!

सारी बातें सच्ची लगती,

जो भी मुझसे वो बोली थी।

 

भूल अगर कर बैठूँ तो,

कर क्षमा, दान सिखलाई थी।

मैं भावुक सी विह्वल हो गई ,

उसकी आँखें भर  आईं थीं।

 

मेरी ही दुनिया में वो,

अपनी खुशियाँ भी पाई थी।

मैं जागी , सपने बुनती ,

मेरे बच्चों की भी धायी थी।

 

कर विदा मुझे रोई अविरल !

फिर भी वो मुझे सजाई थी !

अपने टूटे सपने को मुझसे,

जोड़ के वो मुस्काई  थी।

 

कठिन परीक्षा जीवन में,

बन  नाविक पार लगाई थी।

विकट समय में  ढाल बन

ममता से  सर सहलाई थी।

 

मैं विवश कभी हो जाती  तो

वह बाट जोहकर रोई थी।

जब  पहुँच गयी माँ के दर पे

वह अश्रु से पग धोई थी  !

 

 

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