संपादकीय –
जीवन, शृंगार और सृजन का महीना सावन
सावन का महीना चल रहा है। सावन में कजरी और बारहमासा गाने का चलन है। रिमझिम पड़ती फुहार के बीच जब स्त्रियां अपने हाथों में हरी- हरी मेहंदी लगा झूले पर झूलती होती हैं, तब उनके होंठ से स्वतः बारहमासा फूट पड़ते हैं। बारहमासा या कजरी प्रियतम के पास न होने पर अपनी वेदना को प्रकट करने का बड़ा माध्यम है। वह गाती हैं- सावन हे सखी सगरो सुहावन, रिमझिम बरसे मेघ हे/बिजली जे चमके रामा लौका जे लौके, सेहो देखे जियरा डेराय हे। इस बारहमासा में व्यक्त12 महीने की चित्रात्मक प्रस्तुति मन को व्यथित करता है। सावन महीने में हरी साड़ी, हरी मेहंदी और हरी चूड़ी पहने स्त्री बिल्कुल धरती सरीखी दिखती है। उतनी ही धैर्यवान, धीर- गंभीर और पालन- पोषण करने वाली। धरती जहाँ अन्नपूर्णा होती है, वहीं स्त्री साक्षात अन्नपूर्णा की अवतार। घर गृहिणी से होता है। कहा गया है- बिन घरनी, घर सुन। रिश्ते-नाते की मिठास हो या रिश्तों को सहेजने, संवारने की कला, स्त्री इसमें पूर्ण निपुण होती है। सावन में धरती का स्त्री हो जाना और अपनी जनन क्षमता से पूरी धरती को धन-धान्य से भर देना या उसे हरे रंग में रंग देना स्त्रीत्व को प्रतिष्ठापित ही तो करता है। रामचरितमानस का वर्षा ऋतु वर्णन हो या कालिदास का मेघदूत, रचनाकारों की प्रिय ऋतु वर्षा ऋतु ही रही है। अंग्रेजी साहित्य में भले वसंत ऋतु की महिमा सबसे अधिक व्यक्त की गई हो, परंतु भारतीय रचनाकारों को सावन की रिमझिम फुहार, आसमान का कभी स्याह तो कभी चंपई होना आकर्षित करता है। धरती पर वर्षा की बूंद से उत्पन्न सोधीं गंध हो या आसमान में इंद्रधनुष का सम्मोहित करने वाला रूप। दुल्हन बनी पृथ्वी भला किसको सृजन के लिए उद्वेलित नहीं करती होगी?
बारिश में भींगा पर को फड़फड़ता परिंदा हो या रंग-बिरंगे छाते से भीगने से खुद को बचाती नवयुवती। बादल को देखकर मोर का नाचना, मेढ़क की टर्र टों, उफनती मचलती नदियाँ धूल रहित सड़कें सबकुछ बहुत स्वच्छ, बहुत धवल।
प्रकृति के सारे शृंगार को अपने भाल पर समेटे भगवान शिव का प्रिय महीना सावन तुम्हारा हर एक सृजनशील हृदय के आंगन में स्वागत है,अभिनंदन है!