जिजीविषा | सबूत | दीपक |
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संजो लो अपने भीतर मुझे बाहर लाने का साहस बाद में. मैं खुद लड़ लूँगी अपने अस्तित्व की लड़ाई तुम्हे बचाना है,मेरा आज बिना इस भय के क्या होगा मेरा कल? मुझे चाहिए थोड़ी सी जगह तुम्हारी कोंख में अंकुर बन फूटने को बाद में. अपने विस्तार और विकास के रास्ते मैं खुद तलाश लूँगी अपनी पूरी ताक़त लगाकर मैं उछलूँगी क्रीड़ाएँ करूंगी और तुम्हे दिलाती रहूंगी अपने वज़ूद का एहसास कली और खुशबू बनकर मुस्कुराऊंगी तुम्हारे सपनों में मेरे सौंदर्य और कौमार्य के कुचले जाने का डर बता तुम्हे भरमाया जायेगा पर तुम मत हारना हिम्मत मुझे पनपने देना,और जीना मेरे पनपने के एहसास को बाद में. मुझे अपने हिस्से की जमीन-आसमान पाने से कहाँ कोई रोक सकता है नदी खुद बनाती है अपना रास्ता मैं मौसम में उतरूंगी ,तैरूँगी, फुदकुंगी कलियों के शोख रंगों में चटकूँगी .जीऊँगी मैं अपने स्त्रीत्व की सम्पूर्णता को देखो तो पत्थर की शिला में भी फूटे हैं तृणाकुर ढेर सारी,नई-नई कोंपलें वे तो नहीं हैं,उसका हिस्सा फिर भी वो समेटे है उन्हें आश्रयदाता बनकर बिना डरे अभयदान देकर ..और मैं मैं तो तुम्हारे वज़ूद का हिस्सा हूँ माँ सृष्टि का अनुपम उपहार हूँ आने दो मुझे अपने अंक में अपनी दुनिया में और जियो इस गर्वीले क्षण को एक विजेता की तरह | मौका-ए-वारदात से मिले कुछ सबूतों में एक टूटा हुआ कड़ा नींद की गोलियों की खाली शीशी और एक पुरानी डायरी तो मिली जिसमें सूखे हुए आंसुओं से खरोंचे अक्षर चस्पा थे पर कहीं नही मिले उदास तराने, घुटी हुई सिसकियाँ बेआवाज़ पुकार, खाली मुट्ठियाँ भोगे जाने के बाद ठुकराये जाने के बेहिसाब दर्द आत्महत्या के लिए पथराये सबूत ही काफी थे पर जिलाये रखने को नाकाफी थे,.फरेबी दिलासे ढोंगी थपकियाँ और अंतहीन प्रतीक्षा ये आत्महत्या काफ़ी नही थी क्या ? सिखाने को सबक कुछ और भी ज़िन्दगियाँ कुछ घुटी घुटी सिसकियाँ घासलेट की खाली बोतलें मज़बूत रस्सियाँ,बिना मुंडेरों के कुए और कितने और कब तक | कल की तरह आज भी दे सकता है रोशनी.. गर न मिलायें चालाकी उसके तेल में जिसकी ऊष्मा में वह खुद ही तपता है जो बूँद बूँद से भरता है उजाला हमारे घरों में गर न घालमेल करते बाती के कपास में तो वो जगमगाता वैसा ही जैसा दादी के ज़माने में जगमगाता था हमने क्या क्या नहीं किया यहाँ तक कि उसकी मिट्टी में भी मिला दी बुरी नीयत और अब हम ही कहते हैं बेशर्मी से कि दीपक नहीं देते रोशनी पहले जमाने की तरह |
सबके निशाने पर है | रिश्ते | |
उसमे है वो सब जो चारा बनाया जा सके तुम्हारे हाके के लिए तुम्हारा सॉफ्ट टारगेट है हाँ वो है एक दलित एक स्त्री और एक बच्ची भी तुम्हारे लिए मुफीद है उसमें ये सब एक साथ मिल जाना और उसके पास है एक प्रतिकार की भाषा थूक कर तुम्हारे मुंह पर चिंगारियाँ पैदा करना आरती तिवारी | कैसे / किससे/क्यों बनते/ मिटते/दम तोड़ते वजह.......... निर्दयी अपेक्षाएं कद्दावर की कमज़ोर से सक्षम की अक्षम से अमीर की गरीब से प्रदर्शन....... अपने वैभव का/ऐश्वर्य का स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने का दूसरों को नीचा दिखाने का इस सब में सफल व्यक्ति निरन्तर ऊगा रहे एक विकृति जो करती जा रही ध्वस्त संस्कृति को प्रतिपल रिश्ते सिसक सिसक के तोड़ रहे दम जैसे मुरझा जाते हैं पौधे जिन्हें नहीं मिलती ज़मीन की पोषकता हवा का माधुर्य पानी की तृप्ति सूर्य के प्रकाश का भोजन मर जाते हैं वैसे ही मरते जाते रिश्ते धन के भोंडे प्रदर्शन और अवसरवादिता से |
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संप्रत्ति – मंदसौर, मध्यप्रदेश