सुनो स्त्रियों
आज महालया का शुभ दिन है
और आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं
तुम्हें कह दिया गया था
सभ्यताओं के आरम्भिक दौर में ही
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तंत्र देवता
तुम मान ली गईं वह देवी
जिसके सकल अँगों को ढाल दिया गया था
उनके सुन्दरतम रूप में
बस छोड़ दिये गये थे नयन शेष
वे नयन जो देख सकते थे
तुम पर ठहरता किसी दृष्टि का स्याह – सफेद रंग
दिखा सकते थे तुम्हें मार्ग के गड्ढे
तुम्हारा भला बुरा भी,
और क्यों ना दिखाते भला
तुम्हारे गन्तव्य से भिड़ने के अभ्यस्त विशाल पत्थर भी
संवर कर कदाचित तुम्हें कर सकते थे निरापद
तुम्हारे बिन बने नयनों के लिए
सहस्त्रों बरस लम्बा पितृपक्ष
समझो आज खत्म हुआ
आज महालया का शुभ दिन है
और आज ही तुम्हारे नयन संवारे जाने हैं
ताकि तुम देख सको वह सब
जो तुम्हारे हित में था, सदियों से
जिन गड्ढों में तुम बार – बार गिरीं
बिना आंख की होकर
चल सको उनसे बच कर
और वे सदियों से अभ्यस्त
विशाल पत्थर भी कभी
भिड़ न सकें तुम्हारे गंतव्य की शहतीरों से
आज महालया का शुभ दिन है और
आज तुम्हारे नयन सँवारे जाने हैं
(महालया—- दुर्गा पूजा में स्थापित करने के लिए कलाकार देवी की मूर्ति पूर्ण कर लेता है, बस आंख छोड़ देता है। पितृ पक्ष के बाद महालया में देवी की आंख बनाई जाती है, अब देवी पूर्ण होकर पंडालों या घरों में स्थापित हो जाती है।)
सैनिक
मैंने सृष्टि के आरंभ में ही
देश भक्ति का अनोखा,
अनमोल अमृत जो पिया
फिर तो मैं कभी मरा नहीं।
सैल्यूकस के तीर हों या तलवारें तेज़ मुगलों की
या घिरे उन्मत्त साये अँग्रेजी संगीनों के
वज्र बनकर जब उठा,
फिर तो सिर कभी कटा नहीं।
श्री राम हों अशोक, अकबर या अटल
लंकाओं से लड़ता हुआ मगध, दिल्ली मैं चला
समय की सब कतरनों में खुद को कुछ ऐसे सिया
फिर तो मैं कभी उधड़ा नहीं।
बंगाली खाड़ियों, हिमालयी चोटियों से होता हुआ
कारगिल की ठंडी – ठंडी बाजुओं पर
लेकर तिरंगा जब चढ़ा
फिर तो मैं कभी फिसला नहीं।
हिन्द सागर के वृहत्तर सीने पर,
नित्य मैं तैरा किया
जाकर तलहटियों तक भी उसकी,
मैं कभी डूबा नहीं ।
ऐ शारदा क्यों हार दी हिम्मत कहो
वय संधि से आँखें मिलाते
पुत्र के मन पर छपा
यहाँ हूँ मैं यहीं हूँ
मैं कहीं गया नहीं।
केंचुली थी छोड़ दी है समर भूमि में अभी
सब प्रमादों को जलाया
साथ उनके मैं कभी जला नहीं ।
जला भी जो, जला अगन पाखी की तरह
निकल आया हूँ सदा अपनी गरम राख़ से
फिर तो मैं कभी बुझा नहीं
माँ तुम कृष्ण के जीवन दर्शन की अनुयायिनी
आत्मसात कर गीतोपदेश हर कर्म से निर्लिप्त रहीं
फिर देह से लिपटा हुआ,
मायावी ये मोह क्यों छूटा नहीं।
बाबा पोंछ दो आँसू सभी
दूर कर दो सबकी सब उदासियाँ
मेरे सोने जागने का अनवरत, अविराम
क्रम अभी टूटा नहीं।
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