खुर
घर में धान आते ही
बैलों के खुर याद आए
हल चलाते समय गदबेर में कट चुका था
गोहट मारना बाकी था
खुर में खून लथपथ था
धान से चावल निकालते वक्त
खुर की गंध नथूनों में भर गई
चट से चावल बेच
मेहंदिया से दवा ली
घायल खुर से
देश घायल हो रहा है
देश में खून तो ऐसे ही बह रहा है
खुर से खुद परेशान हूँ
और हमारा घर भी
कल फिर धतूर और गेंदे के पत्तियों के रस चूआकर खुर ठीक किया
अगले सालके लिए
घर में थोड़ा चावल
और गेहूँ बचाकर रखा हूँ
महुआ परसो बेच दूँगा
तिसी घर की लड़की के लिए रखा हूँ
बेचकर रिबन के लिए।
अब मास्टरजी नहीं मारेंगे बेटी को
खुर का गंध देश देशांतर में फैल गया है
संयुक्त राष्ट्र में नहीं पहुँचा अभी तक
कोफी अन्नान मर भी गए कल
उनके रंग के धान ऊपजा लेगें निकलेगा बासमती चावल
तसला पीट कर बजाकर डभका देगें भात
बच्चे शोर मचाकर खा जाएँगे
कटोरा के कटोरा
खुर का दु:ख भूल जाएँगे
देश का दुःख कैसे भूलेंगे प्रधान !!
दादी की याद
दादी की बहुत याद आ रही है
बगल में एक दादी रोती है रोज़
लकवा की मारी है वह
मेरी दादी नहीं रहीं
उनको गए दस साल से ऊपर हुए
मैं रोने की आवाज से परेशान हूँ
ठीक रुम की बगल में है
एक दीवार
दवा चल रही है
आराम नहीं है
मैं रोना चाहता हूँ जोर से चीखकर
मैं रो नहीं पा रहा हूं
एक साल से
बाजार ने संवेदनहीन बना रखा है
जैसे वृक्ष झुकतें हैं
दादी झुक गईं
धनुषाकार
पेड़ रो रहें हैं
घास और पत्ते
गिरे हैं
राही पैर से रौंद रहें हैं
पैर से मैं भी एक दिन रौंदा जाऊँगा
और बच्चे उठा ले जाएँगे-
लाश!
लड़कियाँ फूल नहीं चढ़ा पाएंगी
बस कोई एक कंठ में पानी डाल देगी मदर टेरेसा
हो सकता है, वह पुरानी प्रेमिका हो
नयी भी एक दिन आएगी
दादी की तरह गाल सहलाते ,दुलारते, इतराते
प्यार हर समय हो सकता है
दादी किस समय हो सकती है
मालूम नहीं….
दादी के आँचल में छुप- छुपकर
साथ – साथ रोना चाहता हूँ
फिलहाल एक दादी रो रही है
दीवार से सटे….
एक अनागरिक का दु:ख
मां को रेल या बस का टिकट नहीं कटाने आता
जैसे एक पंक्षी भटकता रहता है मां बिन
कहीं भी जाने में डरती हैं मां
जबकि शादी के समय आठवीं पास थी
मां से तेज उस समय एक चिड़िया थी जो पिंजरे में बंद होने के बाद भी पूरी रामायण कर ली थी याद
और श्रीमद्भागवत गीता भी
अब चिड़िया भी नहीं गाती कंठ से
कि आए रुलाई
पैंतीस साल में एक बार पिता संग बक्सर गईं मां
लगभग उसी समय, बस में भी
तब भीखमंगे भी एक साथ यात्रा करते थे
आज तो बांह पकड़ उतार देता है खलासी
मेरे पैदा होने के बाद मैट्रिक किया मां ने
जब मैंने मैट्रिक किया उसके पांच साल बाद
मां पिंजरोईं गांव की है
आश्चर्य है कि पिंजरोईं में कोई पिंजरा नहीं है
मेरा गांव विष्णुपुरा है
और यहां भी कोई विष्णु नहीं है
हमारे वंशज हरिगांव भोजपुर के थे
राजा भोज के क्षेत्र से
उसके आगे का पता नहीं है
और नहीं है उस समय का आधार कार्ड
आर्यावर्त्त के वासी हैं हम
बस इतना पता है
ग्लोब पर कहीं नहीं दिखता हमारा नाम
या गांव का पता
खेत खेसरा खतियान सब चुल्हे में झोंक दिया चाची ने
कैसे बताऊं पता सही
कहां जाऊं सुरक्षित
आधी उम्र बीत जाने के बाद
कौन सी सरकार बनाऊं की
बन जाए बात
हम अपने क्षेत्र के नागरिक हैं
चाहे माने या न माने सरकार
पेड़ के गिर जाने पर
आसमान को पोतना चाहता हूँ
गुलाबी रंग से
वृक्षों को नहीं
धरती तो पावन है
इसलिए जल को पान कर रहा हूं
मिट्टी को सिंदूर बनाकर लपेट देना चाहता हूं
माथे पर
दूधिया रंग वाली युवती को
उसको ताप चाहिए
मेरे हाथ से
थप – थप चांँद पर हथेली की धमक से
बालू के कण जा बैठते हैं आँखों की कोर में
रुई के फाहे से मुँह का भाप लगा निकाल लेता हूँ हौले से
क्षितिज पर एक चुम्बन की जरुरत है उसे
दादी बोलती है छोड़ दो उसे
दो शब्द देकर
जीवन में बहुत काम है उसे
रुकता हूँ और पास चला जाता हूँ
सागर का रंग खिंचकर कंठ पर साट देना चहता हूं
और नारियल पानी उडेल देना चाहता हूँ
खरगोश की पीठ की तरह सहलाकर
उसके मुख पर फूंक मारता हूं
हँसती हुई
गले मिलती है तपाक से
जब से गई हो
तब से घास पर टहलते हुए काँटों में उलझ जाता हूं
ऐसा क्या करुँ कि
वो असम से आकर
राज्यसभा में न जाए
और मेरी भूजा से लग जाए
आखिर बागान का केला और अमरुद
गुलाब और चमेली का क्या करुँ
तुम आओ एक दिन
एक रात
एक दोपहर
एक शाम
जब दुनिया से वायरस खत्म हो जाए
वो भूरी आँखों वाली!
पलकों पर शीत का अंश है -शीतांश।
लिख दी है प्रकृति ने
यहां रेत पर पाँव के चिन्ह नहीं है जो धो ले जाए समन्दर
किसी पल
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परिचय : समकालीन कविता में अरुण शीतांश जाना-पहचाना नाम है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर इनकी कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं.
संपर्क – आरा, बिहार
