अरुण शीतांश की तीन कविताएं
दादी मां की याद
दादी की बहुत याद आ रही है
बगल में एक दादी रोती है रोज़
लकवा की मारी है वह
मेरी दादी नहीं रहीं
उनको गए दस साल से ऊपर हुए
मैं रोने की आवाज से परेशान हूँ
ठीक रुम की बगल में है
एक दीवार
दवा चल रही है
आराम नहीं है
मैं रोना चाहता हूँ जोर से चीखकर
मैं रो नहीं पा रहा हूं
एक साल से
बाजार ने संवेदनहीन बना रखा है
जैसे वृक्ष झुकतें हैं
दादी झुक गईं
धनुषाकार
पेड़ रो रहें हैं
घास और पत्ते
गिरे हैं
राही पैर से रौंद रहें हैं
पैर से मैं भी एक दिन रौंदा जाऊँगा
और बच्चे उठा ले जाएँगे-
लाश!
लड़कियाँ फूल नहीं चढ़ा पाएंगी
बस कोई एक कंठ में पानी डाल देगी मदर टेरेसा
हो सकता है, वह पुरानी प्रेमिका हो
नयी भी एक दिन आएगी
दादी की तरह गाल सहलाते ,दुलारते, इतराते
प्यार हर समय हो सकता है
दादी किस समय हो सकती है
मालूम नहीं….
दादी के आँचल में छुप- छुपकर
साथ – साथ रोना चाहता हूँ
फिलहाल एक दादी रो रही है
दीवार से सटे….
हवाई अड्डा (मां के लिए)
ट्रेन में एक दूसरे का पानी पी लेते थे
अब नहीं
सामने बोतल है
आरा पटना करते
एक हवाई अड्डा पड़ता है
जहाँ देखना भी एक डरावना दृश्य था
एक दिन साहस करके देख लिया माँ के कहने से
कुछ दिन बाद माँ बिमार पड़ी
पटना आना पड़ा
ट्रेन से एक बच्चा चिल्लाने लगा ,देखो हवाई जहाज
और न चाहते हुए देखा पहली बार
देश विदेश में हवाई अड्डा एक जगह है
हर जगह लौटने की छाँव होती है
गाँव में भी
शहर में भी और
हवाई अड्डा में भी
माँ ने कहा- वो प्लेन तुम्हारा इंतजार कर रहा है!
इतना कहना ही था कि छोड़कर उड़ गया
क्या करता डरता रहता था
एक दिन साहस कर
टिकट लिया और माँ के सपने
अपने थे,उड़ गया
थोड़ी देर बाद एक एअर होस्टेस की फोटो उतार लिया
माँ के लिए
नज़र लग गई
उसने कहा आपकी सुंदरता मुबारक
मेरा डिलीट कर दीजिए मोहम्मद साहब
उदासी प्लेन में पसर गई
बिरसा मुंडा से माफी मांगते हुए
राँची उतरा
लौट ही रहा था कि बाजार
घेर लिया था मुझे
हवाई अड्डा पर
एक सज्जन फोन पर बात कर रहे थे
माली को पचास देना
तीन सौ नहीं
पत्नी बकझक में थी
माली उधर मुम्बई में उदास होकर लौट रहा था
और इधर मैं माली बन लौट रहा था
राँची में एक फूल रोपकर
पटना से पेसैंजर पकड़कर
आरा लौट रहा था
हर आदमी लौटता है
इसी तरह धीरे धीरे
स्त्री को देखते हुए
नदी को छूते हुए..
जैसे एक पक्षी
पेड़ मां है
पेड़ के नीचे बैठकर कविता लिखता रहा हूं।
पेड़ एक कविता है।
हजारों पेड़ कविता से बाहर हैं।