विशिष्ट कवि : जयप्रकाश मिश्र

दोहे
तुम्हें देख विस्मित रहे, हर पूनम का चाँद ।
चाहे जितना रोक लो, प्यार न माने बाँध।।

प्यार तुम्हारा यों लगे,ज्यों फूलों की गंध।
कोयल बैठी बाग में, पढ़े प्रेम के छंद।।

नजरें उसने फेर लीं, आँसू,सिसकी,सोग।
करम जले इस प्यार का,यह कैसा संयोग ।।

सुबह-सवेरे झाँकती, खिड़की में से धूप।
प्राणों को प्रमुदित करे, कैसा चंदन रूप।।

नींद उड़े आकाश में, सपने हुए यतीम।
रैन-रैन जीवन लगे, कैसी सजा रहीम।।

अँगराई,अमराइयाँ, विहसे कुटिल वसंत ।
एक नशा खिलता गया, क्या भोगी क्या संत।।

हँसी तुम्हारी सुबह-सी,सुन्दरता भी खास।
रूप तुम्हारा दैखकर, बैठा चाँद उदास।।

छूकर मुझको दे गये, एक नया अहसास ।
कानों में मिसरी घुली, छाया फिर मधुमास ।।

घनी अँधेरी रात में, सुन्दरता की धूप।
लहसुन गोरे अंग है, रोशन तेरा रूप।।

चले गये छूकर लटें, पिया दूर-परदेश।
आज तलक धोये नहीं विरहिन अपने केश।।

कब से तुमको ढूँढ़ते, ये बनजारे नैन।
जीवन तो जंगल बने,नहीं हृदय को चैन।।

दोहे में सरस्वती वंदना

जय-जय – जय माँ शारदे ,शत-शत तुझे प्रणाम ।
पूजन मैं तेरा करूँ,हरदम आठों याम।।

प्रतिपल,प्रतिपग सहज ही,देती हो वरदान।
हे! माँ वीणा वादिनी,ज्ञान चढ़े परवान।।

शिक्षा का विस्तार हो, मिले सभी को ज्ञान।
ऐसी कृपा बनी रहे, यही रहे बस ध्यान ।।

वंदन मैं तेरा करूँ, मैं बालक नादान।
लघुता को प्रभुता मिले, क्षण में करे महान।।

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