विशिष्ट कवि :: रामेश्वर द्विवेदी

दुख
आप मरे हुए लोग हैं
या अधूरे आदमी
क्योंकि नहीं जानते दुख ।
आपके पास ना होंगे-
पर बहुत है दुख दुनिया में ।
हर कोंपल के पहले
पेड़ की जड़ों में बजता है दुख
टूटते हुए पत्तों का ।
वह जागता है-
सूखती हुई नदी की झुर्रियों में
नहीं देख सकते ?
तो चलिए उस बुढ़िया के पास
जो जाग रही है
चिराग के चुक जाने
रात के सो जाने के बाद भी,
क्योंकि
सुबह का गया
अब भी नहीं लौटा है उसका बेटा
दहेज के बिना, बिन ब्याही बूढ़ी है, लड़कियाँ
अधजली पड़ी है औरतें
उस बूढ़े के पास
एक लाल रिबन के लिए
भाग गई जिसकी बेटी ।
दुख वहाँ है
जहां बारिश में आसमान नहीं
बरसता है घर ।
उन तमाम लोगों के पास दुख
महीने के आखिरी सप्ताह-सा
गुजर रहा है जिनका जीवन
उनके पास देखो दुख
दंगों में जिसके उजड़ गए हैं घर
घर का टूट जाना
होता है रीढ का टूट जाना
जहाँ बड़ी हो जाती है
हर छोटी लड़ाई ।
नहीं दिख रहा दुख ?
तो समझो
मर रहा है या अभी तक
अधूरा रह गया है
तुम्हारा आदमी ।
सुख
खुशनुमा दिनों की याद
अकेले में चुपचाप होठों का मुस्कुराना
और उदास हो जाना
सुख,
उदास चेहरों के लहू में
हिल उठा है वसंत
कोई शब्द हिलकोर गया
भीतर बहती नदी
दूर अजानी परती में
उग आये फूल या फ़सलें कभी
लाँघ गया सफेद पाखियों का झुंड डूबते सूरज की लाली
सावन है सुख
सुख बादल है।
सुबह
1
रात रोई, ओस की झूठी चुगली है
अपना अतिरिक्त अंधेरा
सूरज की भट्टी में झोंक देने के लिए
रात दौड़ती हुई आई थी
पसीना छलक आया है।
2
अंधेरे की गैरहाज़िरी
सुबह की ग़लत गवाही है
एक आरंभ जन्मा है
कत्ल हुआ है सांझ तक
फिर बूढ़ी रात ने
सपनों की मांग में संदल लगा दिए हैं।
सपना (1)
कौन नहीं जानता?
सपने सफेद नहीं होते
रंगों में ढलते हैं !
बहते पानी में भी जीती है मछलियाँ
मगर और जाल के खौफ के साथ
समुद्र तक जाने या
एक से कई हो जाने तक।
सपने- दौड़ती नदी में पलते हैं।
नदी खोलती है जबड़ा
पच जाते हैं पेड़
करुणा होती है-
नदी की
धान की जड़ों में;
सपने! फूलों में चलते हैं।
गौरैया के, बालियों पर फुदकने की तरह
सपने-फलों में बढ़ते हैं।
पगडंडियां पर जाने के पहले
भीतर भी लौटती हैं
गहरी नदी की कोख में
मोतियों की ओर
सपने-कभी कभी लंगड़े नहीं होते
पहले मन में चलते हैं।
सपना (२)
बाप ने देखा
रात भर सपना
रुपयों के पेड़-
मां ने– फुलाई हुई दूध की नदी, भाई ने– सरेआम दुकाने नौकरी की
बहन ने– नीलाम होता दूल्हा
बेटे ने– खिलौनों के पर्वत
और बेटी ने– कांच की गुड़िया !
सारा परिवार जागा अहले सुबह
तो लील चुकी थी नदी
किनारे तमाम खड़े पेड़
दुकानों पर तख्ती-उधार बंद
गुड़िया पहाड़ से गिरी
तो भर मुँह माटी ।
दिन भर शीशे के नन्हें टुकड़े
चुभते रहे,आंखों में, तलवों में,
चुपचाप
और फिर शाम हुई
तो मन था
और आंखें थी
और नींद थी
और थे सपने
और रात थी–कि भादो की नदी की तरह
सपनों से भरी हुई लबालब
लोगों ने कहा-आंखें हैं तो नींद भी
नींद है तो सपने !
सपने तो आंखों की प्रकृति है टूटना और जुड़ना सपनों के स्वभाव
काढ़ भी ली जाए आंखें
सपने तो फिर भी आएंगे ना !
याद का मौसम
पांच सात पत्ती वाली टहनी पर
खिला एक गुलाब-
भर गया खुशबू से सारा आकाश-
पुखराजी सपनों की पीठ पर
पड़ी पीड़ा की दस्तक
दोस्त! यह तुम्हारी याद का मौसम है
घिरता हुआ भीतर-बाहर
सर्द दिनों के कोहरों की तरह।
तुमने पढ़े हैं पत्र पुराने
तभी-
सदियों सोया बसंत
शिराओं में बजने लगा है
काश!
बीतने के साथ
बंद न होते जाते विगत के रास्ते
अपाहिज होते जाना
न होती नियति अतीत की
तब हम पाँव-पाँव लौटकर
पिछली सड़कों पर
इकट्ठे फिर मिल सकते थे ।
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परिचय : कविता और कहानी के सशक्त हस्ताक्षर रामेश्वर द्विवेदी की पांडुलिपि ‘केंचुल छोड़ते लोग’ बिहार राजभाषा से पुरस्कृत हो चुकी है.

‘गुलमोहर फिर खिलेगा’ कहानी को किताबघर प्रकाशन द्वारा 2002 का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, ‘पहाड़ों के पार जाती पगडंडीयाँ’ को नागार्जुन पुरस्कार सहित आर्य स्मृति सम्मान, दिल्ली हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई सम्मान इन्हें मिल चुके हैं.

संप्रति– अवकाश प्राप्त प्राचार्य, केंद्रीय विद्यालय।
स्थायी पता-ग्राम व पोस्ट- बसंतपट्टी, जिला-शिवहर, बिहार
वर्तमान पता- मालीघाट, मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार
मोबाइल नंबर– 9717871929

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