जंगल जी उठता है
महुआ पेड़ के नीचे
गांव की लड़कियों की हँसी में
जंगल है
जंगल अब भी
जंगल है यहाँ
गोला – बारूद फूटे
गरजे आसमान से तोप
जंगल अब भी
जंगल है
गांव की लड़कियां
जानती हैं
हँसती हैं – मुस्कुराती हैं
टुकनी मुंड में उठाये
जब भी निकलती हैं
महुआ – टोरा बीनने
जंगल की ओर
तब
जंगल का जंगल
जी उठता है
उनके स्वागत में…
छानी में तोरई फूल
लखमू के बाड़ी में खिल रहे हैं
किसम – किसम के फूल
जोंदरा (भुट्टा) अभी पका नहीं है
पका नहीं है मुनगा फूल
पपीता अभी पकेगा
पकेगा फनस(कटहल)
भात अभी पका नहीं है
चूडेगा अभी सुकसी ( सूखी मछली) साग
हांडी में अभी लांदा (चावल से बना नशीला पेय )
छानी से उठेगा धुआं
नागर से खेत जोतेगा
माथे मे पसीना चमकेगा
और मुंडबेरा (दोपहर का समय ) डेरा मेँ लौटेगा लखमू
चापडा़ चटनी (जंगली चीटियों की चटनी ) पिसेगा
और तूंबा में रखा सलफी पियेगा
खाएगा भात
खाएगा सुकसी साग
सोनमती हंसेगी
हंसेगी डोकरी आया
सोनमती ,आया को भात देगी
और नोनी को मडिया पेज
यह सब देख
लखमू की छानी में
तोरई फूल और रंग बिखरेगा
आसमान हंसेगा
हंसेगी छानी में बैठी नानी चिरई
इस तरह
खिलेगा गांव में
एक और सुंदर दिन
गाँव के बच्चों के लिए
बढ़ो मेरी नन्ही उंगलियों बढ़ो
उर्वर भूमि से
फसल की बालियों में हँसो
उगो मेरी झाड़ियों उगो
कांटो से
बेल की तरह आगे फैलने के
लिए फैलो
उड़ो मेरे टिड्डों उड़ो
आसमान में छाने के
लिए उड़ो
फैलो मेरी धरती फैलो
पेड़ की टहनियों से
जड़ों को छूने के
लिए फैलो
बहो मेरी नदियों बहो
मेरे विश्वास से
भूमि को उपजाऊ बनाने
के लिए
बार – बार बहो.
पेड़ हँसता है
चिड़िया की बोली समझता है पेड़
इसलिए उसकी टहनी पर बैठ
चहकती है चिड़िया
नदी का गुनगुनाना सुनता है पेड़
इसलिए उसके रगो में बहती है
हरे रंग की नदी
आसमान की हँसी, हवा के अल्हड़पन में देखता है
पेड़ अपना जीवन
हलधर डोकरा की छानी में
खिल रहे कुम्हड़ा फूल को
देख झूमता है पेड़
पेड़ मिट्टी से जुड़ा है
जुड़ा है जीवन – जगत से
इसलिए उसके जीवन में चमक है
पेड़ हँसता है तो गांव के लेका – लेकी हँसते हैं, हँसते हैं सियान – सजन
पेड़ है तो गांव है
गांव है तो पेड़ है
पेड़ गांव के आराध्य हैं
लेकिन
गांव के पिला – पिचका
और डोकरा – डोकरी की तरह
एकदम भकुआ है पेड़
इसलिए वर्षो से
अपने जीवन के लिए
जूझ रहा है पेड़
जूझते हुए पेड़ में
पानी की हँसी है
क्या आपने इसे देखा है?
शांत जंगल को
पगडंडी को छूकर
एक नदी
बहती है मेरे भीतर
हरे रंग को छूकर
मैं वृक्ष होता हूँ
फिर जंगल
मेरी जड़ों में
खेत का पानी है
और चेहरे में
धूसर मिट्टी का ताप
मेरी हँसी में
जंगल की चमक है।
गाँव की अधकच्ची पीली मिट्टी से
लिखा गया है मेरा नाम
मैं जहाँ रहता हूँ
उस मिट्टी को छूता हूँ
मेरे पास गाँव है, पहाड़, पगडंडी
और नदी-नाले
और यहाँ बसने वाले असंख्य जन
इनके जीवन से रचता है मेरा संसार
यहाँ कुछ दिनों से
बह रही है तेज़-तेज़ हवा
कि हवा में
खड़क-खड़क कर चटक रही हैं
सूखी पत्तियाँ
मैं हैरान हूँ
शान्त जंगल को
नए रूप में देखकर
डोकरी फूलो
धूप हो या बरसात
ठण्ड हो या लू
मुड़ में टुकनी उठाए
नंगे पाँव आती है
दूर गाँव से शहर
दोना-पत्तल बेचने वाली
डोकरी फूलो
डोकरी फूलो को
जब भी देखता हूँ
देखता हूँ उसके चेहरे में
खिलता है जंगल
डोकरी फूलो
बोलती है
बोलता है जंगल
डोकरी फूलो
हँसती है
हँसता है जंगल
क्या आपकी तरफ़
ऎसी डोकरी फूलो है
जिसके नंगे पाँव को छूकर, जंगल
आपकी देहरी को
हरा-भरा कर देता है?
हमारे यहाँ
एक नहीं
अनेक ऎसी डोकरी फूलो हैं
जिनकी मेहनत से
हमारा जीवन
हरा-भरा रहता है।
बेटे की हँसी में
यश के लिए
अँधेरे की काया पहन
चमकीले फूल की तरह
खिल उठती है रात
अँधेरा, धीरे से लिखता है
आसमान की छाती पर
सुनहरे अक्षरों से
चाँद-तारे
और
मेरी खिड़की में
जगमग हो उठता है
आसमान
अक्सर रात के बारह बजे
मेरी नींद टूटती है
खिड़की में देखता हूँ
चाँद को
तारों के बीच
हँसते-खिलखिलाते
ठीक इसी समय
नींद में हँसता है मेरा बेटा
बेटे की हँसी में
हँसता है मेरा समय
हँस रहा हूँ मैं
सूरज के लिए
पल-पल मुश्किल समय में
अकेला नहीं हूँ
सूरज की हँसी है
मेरे पास
सूरज की हँसी
तीरथगढ़ का जलप्रपात है
जहाँ मैं डूबता-उतराता हूँ
और भूल जाता हूँ
अपनी थकान
सूरज हँस रहा है
हँस रहा है घर
हँस रहा है आस-पड़ोस
हँस रहे हैं लोग-बाग
हँस रहे हैं आसमान में उड़ते पक्षी
हँस रहा हूँ मैं
हँस रही है पृथ्वी इस समय
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परिचय : विजय सिंह लेखन के अलावा साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन सूत्र’ का संपादन कर रहे हैं.
इन्हें लेखन के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं. फिलहाल जगदलपुर (बस्तर) में रहते हैं.