विशिष्ट कवि : विमलेश त्रिपाठी

चूल्हा

वह

एक स्त्री के हाथ की नरम मिट्टी है

आँच में जलते गालों की आभा

आत्मा के धुँए का बादल और आँख का लोर

झीम-झीम बहता काजल

वह

आसमान की ओर उमगी उदास हँसी है

वह

एक सुहागिन का पुरूष है

एक अटूट व्रत

एक पूरी हुई भखौटी

नवजातों की लंबी उम्र की अंतहीन एक प्रार्थना

एक ईश्वर है

वह

भूख के खिलाफ सदियों से इतिहास में अकेली खड़ी

एक आदिम स्त्री का शोकगीत है

अन्न के भविष्यत काल तक गूँजता

वह

एक अनाम स्त्री का घर है

पेट है

मन है

प्रेम है

युद्ध है

हार है

जीत है

 

वह

सड़क के फूटपाथ पर

गर्वोन्नत और अकेला खड़ा

एक लरकोरी है

उसके माथे पर तसली है

तसली में अदहन है

अदहन में कुछ दाने खुद्दी हैं

 

वह

असंख्य धरती पुत्रों का परिवार है

स्वप्न है

जीवन है

दुःख है

सुख है

 

इतिहास और वर्तमान और भविष्य हर जगह देख लिजिए

पड़ताल कर लीजिए हर कोने अंतरे का

कभी भी

कहीं भी

समय के असंख्य आकाश गंगाओं के पार

और फिलहाल

और अंततः

वह एक सबुज संसार  है

एक गर्भवती पृथ्वी है …।

 

तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून 

इस रात के बियाबान सन्नाटे में आज
तुम्हे बहुत याद कर रहा हूँ आलिया परवींन खातून

वह खत जो तुम्हे लिखा पहली और आखिरी बार
उसे पढ़ने के बाद
तुम चुप और उदास न हो गई होतीं
तो एक घर बस सकता था

वे गुलाब जो मसले मैंने हथेलियों में
वे चॉकलेट्स जो बहा दिए नालियों में
वे आंसूं जो बहे अँधेरे कोने में
उसे अगर रोक दिया होता तुमने
तो मैं भी भर नींद सो सकता था

तुम अभी कहाँ हो आलिया परवीन खातून
कश्मीर में
बलूचिस्तान में
या सीरिया में

तुम अब भी गाती हो गुलजार के गीत
हँसती हो गुलमुहर की तरह
तुम्हे पता है
तुम्हारे गीतों की डायरी
अब भी है मेरे पास सुरक्षित
जिसे मैंने तुम्हारे बैग से चुराई थी

तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून
यह मुल्क अब रहने लायक न रहा
प्रेम को बाजार ने खरीद लिया है
कविता तो अब एक फरेब है आम नागरिकों की भाषा में

एक रसूख पार्श्व गायक की ट्वीट पर
बहस कर रहा है पूरा हिंदुस्तान
किसी के कान नहीं जाते
बुद्धिजीवी-कलाकार की बातों पर
अब यह अभिनेताओं और नेताओं का मुल्क है मेरी दोस्त

तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून
मैं हर कवि की तरह
अपनी कविताओं में कही गुम गया हूँ

तुम्हे किसने मारा
हिंदुओं ने
मुसलमानों ने
सिक्खों ने
क्रिस्तानियों ने
कि राजनीति की जादुई चाकू से मारी गईं तुम

कुछ तो बोलो आलिया परवीन खातून
तुम मौन क्यों हो

क्या सचमुच नहीं रही तुम इस दुनिया में….।

वह लड़की

बस में मेरे साथ की सीट पर बैठी वह लड़की आलोक धन्वा की कविता की भागी हुई लड़की नहीं है न है उदय प्रकाश की औरतें कविता की कोई स्त्री पात्र

वह सामान्य-सी और सुन्दर दिखने वाली लड़की जो फ़ोन पर पूछ रही है अपनी मां से कि लौटते हुए घर के पास के बाजार से क्या लेना है कि अब तक खाना क्यों नहीं बना

वह किसी महंगे होटल के आईने के सामने अपने खुले हुए कपड़ें दुबारा पहनकर आयी है माथे पर बिन्दी और होंठमें लिपस्टिक दुबारा लगाकर आयी है पूरी बॉडी को महंगे ड्यूड्रेन्ट से फिर-फिर स्प्रे किया है

और पैदल चलते हुए बस स्टैंड पर उसने माठकल तक जाने वाली बस पकड़ी है एक मोटे आदमी के उतरने के बाद वह मेरे पास की सीट पर बैठी गई है वह माथकल उतर जायेगी बस आगे बढ़ जायेगी उसके साथ एक अधूरी कविता उसके घर तक चली जाएगी

लड़की बाजार से दो साबुत बाटा मछली खरीदेगी और पहले के बाक़ी पैसे चुकायेगी मोदी की दुकान से साबुन खरीदेगी और बाकी का उधार चुकायेगी इस तरह उसके सारे पैसे खर्च हो जाएंगे मैनेजमेंट की जरुरी किताब वह इस बार भी न खरीद पायी – लड़की सोचेगी

वह घर जाकर आईने के सामने अपना चेहरा निहारेगी निरखेगी अपनी देह के दाग चेंज करते हुए माँ को खाना बनाने के लिए कहकर घुस जायेगी बाथरूम में रगड़ेगी देह अपनी बार-बार साबुन से अपने आंसुओं को बह जाने देगी पानी बीच

जब वह अपने कमरे में आएगी तो पिता की तस्वीर के सामने खड़ी रहेगी कुछ देर अपने पिता की डायरी उठा लेगी और पढ़ती जायेगी बिना सोचे यह कि इसे वह असंख्य बार पढ़ चुकी है

कुछ देर बाद माँ- बेटी साथ बैठकर खाएंगी मछली-भात
माँ बताएगी कि उसकी दवाइयां खत्म हो गई हैं लड़की सिर्फ ‘हम्म’ कह कर चुप हो जायेगी याद आएगा उसे शम्भु दा का चेहरा और तीन हजार रुपये घंटे की मजूरी
एक हजार शम्भू दा का बाकी ऊपर का खर्च क्लाइंट के माथे दो हजार सिरफ उसकी मजूरी

लड़की को जब रात में नहीं आती नींद तो तो वह पढ़ती है श्रीजात क़ी काविताएँ फेसबुक पर लिखती है स्टेटस कि कोई भी काम छोटा या हीन नहीं होता बशर्ते कि इंसान ईमानदार हो

मैं लौट आता हूँ अपनी कविता में देर रात लेकिन दूसरे दिन फिर मिलती है वह लड़की उसी बस में फ़ोन पर बात करती हुई अपनी माँ से किताब का बैग सम्हालती पसीने सहलाती पूछती माँ से कि कौन-कौन सी दवाइयां लानी है

बस पर सवार कई पुरुषों की तीखी नजरें तौल रही हैं उसकी देह को वह बेपरवाह और चिंतित कुछ देर बाद उतर जाती है माथकल

मेरे पास इस बार एक मुकम्मल कविता छोड़ जाती है ।

 

यश

जिनके पास वह एकदम नहीं था

उन्हें वह थोड़ा-सा चाहिए था

जिनके पास वह पहले से ही थोड़ा था

उन्हें और अधिक की कामना थी

जिनके पास वह बहुत ज्यादा था

वे अमर होने के लिए मरे जा रहे थे

उस संसार में जिसका मैं भी गलती से

या जान-बूझकर बाशिंदा हो चुका था

कोई भी ऐसा नहीं था

जिसे उसकी जरूरत न थी

यहाँ तक कि जो यह कहते घूमते थे

छाती अड़काए     सिर ताने

कि नहीं जी मैं तो सेवा भाव से हूँ यहाँ

मुझे तनिक भी न चाहिए यह विषैली चीज

दरअसल वे ही उसकी चाहत के सबसे बड़े दीवाने थे

झूठ न बोलूँगा

चाहिए तो मुझे भी वह था ही

लेकिन कभी दोस्ती कभी प्रेम कभी कर्तव्य में उलझकर

हर बार उसे पाने से रह जाता था मैं

यह कहकर जी को समझा लेता था

कि न मिला जो यह इस जीवन में

तो बाद मरने के वह मिल जाए शायद

सच मानिए इस एक नादान उम्मीद ने

मेरी कविता को कभी मरने न दिया था ।

 

यात्रायें

कुछ यात्राएँ रहीं मन के भीतर
कई बार बीच राह से लौट आना दर्ज हुआ
कुछ निरर्थक एकदम
कुछ पूरी होने के कगार तक पहुंचीं तो साथ आयी हताशा

बीच में मिले कुछ बूढ़े मृत्यु के इंतजार में बकुली थामे
पोटली काँख में दबाए रुआंसा औरतें कुछ
कोई एक लड़की हँसी तो आसान हुई यात्रा
एक कुत्ता भौंका तो सुबह हुई
एक प्याली चाय बनी किसी गुमटी में
तो शाम का सूरज डूबा
यही पड़ाव
कलेवा भी कुछ इसी तरह

मैं आता रहा और जाता रहा
एक जगह
फिर दूसरी
फिर तीसरी
चौथी
लेकिन पहुँचता हुआ कहीं नहीं
बार-बार एक ही जगह पर लौटता

एक पत्र पहुँचाना न हुआ एक उदास लड़की के पास
लिक्विड क्लोरोफिल की एक शीशी न पहुँच पाई
एक असाध्य बीमारी से ग्रसित दोस्त के पास
एक किसान के पास न पहुँचा पाया
कुछ आखिरी दाने बीज
गांव घर की माताओं के पास न पहुँच पाई
निर्दोष सिपाहियों की हत्या की जरुरी खबरें

एक चिट्ठी मुझे अपने देश के प्रधान मंत्री के पास भी
थी पहुँचानी
दुःख और जिल्लत से भरी
और ईश्वर के बारे में कोई खयाल ही न आया मन में
कि क्या पहुंचाया जाये पास उसके
सारे मनसूबे
एक-एक योजनाएं
रही सब धरी की धरी

इस बीच कविता की कई किताबें छपीं
लेकिन वह भी न पहुँच पाई वहाँ
जहाँ पहूँचाने का वादा था कई एक जन्मों का

हर यात्रा ने खर्चे ढेर सारे शब्द
और उम्र की गिनती लगातार कमती रही
और यात्राएं असाधारण रूप से बढ़ती रहीं ..

 

सेल्फी

क्लिक करने वाला आदमी
जिसके हाथ में मोबाईल
सबसे बड़ा दिखायी दे रहा है
जैसे एक देश का प्रधानमंत्री

उसके बाद की तस्वीरें छोटी
और छोटी होती गई हैं

अंत में बची है जमीन
और थोड़ी-सी घास
जो बहुत घुँधली और काली हो गई है

सबसे पीछे खड़ा एक उदास और अकेला आदमी
कहीं नहीं है।

 

प्रेम-पत्र

हर काल और हर समय में

सबसे अधिक असुरक्षित वही था

उसके हिस्से ही आया

सबसे अधिक दुःख और उपेक्षा

स्याही से नहीं

दुनिया में सबसे अधिक प्रेम-पत्र

खून और आँसुओं से लिखे गए

 

सबसे अधिक यंत्रणाएँ

उसे लिखने वालों को ही दी गईं

खत्म करने के लिए उन्हें

अप्रत्याशित रूप से जाति के भेद भी हो गए समाप्त

विपरीत सप्रदाय के लोग एक हो गए

सत्ताओं की दुश्मनी भी

बदल गई दोस्ती में

सबसे अधिक पराजय और अंधेरा

उसे ही लिखने वालों के हिस्से आया

 

उन्हें खून और आँसुओं में डुबाकर ही

मारा भी गया

यह समय जबकि सरकार कह रही है –

डिजिटल हो चुका है

भर गई हैं इतिहास की किताबें

लोकतंत्र की कीर्ति गाथाओं से

मनुष्य से भी उपर जब

रख दिया गया है संविधान को

 

सदियाँ गुजरीं कि मैं तुम्हारे लिए

एक प्रेम-पत्र लिखना चाहता हूँ

बिना डरे

बिना किसी दबाव के

 

लेकिन क्या करूं

कि मैं एक ऐसे अभागे देश में रहता हूँ

कि जब भी कलम गहता हूँ

मेरे हाथ जकड़ दिए जाते हैं

कभी इतिहास, कभी धर्म और कभी

सभ्यता की किताबों से

 

मैं गुमनाम कवि इस देश का

एक प्रेम-पत्र लिखने से पहले हर बार

मनुष्य से डमी में बदल दिया जाता हूँ ।

 

शहर में अमन चैन था

जगह वही थी
लेकिन उसके चारों और कंटीले तार का घेरा था
तालाब के बीचोंबीच लगे
फौवारे वैसे ही थे
फूल और झाड़ियाँ भी साबुत

लेकिन समय की धूल ने तालाब के जल को
गंदला कर दिया था
फूल खिले थे मगर मुरझाये
झाड़ियाँ छुपा कम दिखा ज्यादा रही थीं

पास में ही बैठा था सफ़ेद वरदी पहने
एक पुलिसवाला

वहाँ नहीं दिखे प्रेम में खोए जोड़े
नहीं दिखा वह बूढा
जो मूंगफली बेचता था
और अपनी धुंधलाई आँखों में भरता रहता था
प्रेम सकुचाया-अन्हुआया हुआ

दरअसल यह वही जगह थी
जहाँ तालाब के पानी से
पहली बार
धोये थे मैंने तुम्हारे थके हुए सांवले पैर
चूमा था तुमने मेरे पपराये होंठ
जन्मी थी ऐन उसी जगह प्रेम की वह पाती
जिसे हमें उम्र भर मिलकर लिखना था

और कुछ खास नहीं कहना
बस यही कि कुछ अरसा पहले यहाँ
परिवर्तन की एक आँधी आयी थी
और प्रेम की पाखियों को उडाकर
दूर किसी अजनबी अनाम देश ले गई थी

सरकार दावा कर रही थी
और लोग बाग यकीन में सिर हिला रहे थे
कि शहर में अमन चैन था।

हँसती हुई औरतें

हँसती हुई औरते अच्छी लगती हैं
अच्छे लगते हैं पीले दाँत
मुचड़ी हुई सूती की साड़ियाँ
और बाँह ढीली कुर्तियाँ अच्छी लगती हैं

सुंदर लगती हैं हँसती हुई औरतें
वे हँसती हैं
तो पृथ्वी भी अपने अक्ष पर कुछ क्षण ठहर
उन्हें निहारती है
आकाश झुककर सलाम करता है

हे दुनिया की तमाम औरतों
तुम हँसो ऐसे ही
तुम्हारे हँसने से सभ्यता का स्याह अंधेरा
धीमें-धीमें पिघलता है।

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परिचय : विमलेश त्रिपाठी चर्चित कवि हैं. इनकी आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. कई संस्थाओं की ऒर से सम्मानित भी हो चुकें हैं. कई संस्थाओं की ऒर से सम्मानित भी हो चुकें हैं.

संपर्क : 1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.

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