बारिश, पहाड़ और भूख
रातभर बारिश हुई है पहाड़ पर
चीड़-साल नहा गया पोर-पोर नेतरहाट में
फुनगियों-पत्तों से टघर रहा पानी अनगिन धार बनकर
रिस रहा घोसलों में झोपड़ों में
तराई में तटबंधों पर नालों में हलचल सी मची है
उफ़न रही नदी भी बेतरह कछार पर
मौसम जरा थमा कि पंछी बार-बार पंख खोल रहे
देह से जलबून्द झाड़ रहे
कभी एकटक अपने चूजों को देख रहे
कभी दाने तलाशते धनखेतों पर उड़ रहे
गाय बैल भैंस बकरियाँ दालानों में शोर कर रहे
आसपास कुत्ते रह-रहकर भूंक रहे
कहीं अन्न के दाने का दरस नहीं
कि फिर घटा ने घेर लिया पूरे पहाड़ को
दिन फिर स्याह हो गए
डाकबंगलों में टूरिस्ट बारिश का मजा ले रहे
‘डिश’ में मुर्गे के भुने गोश्त
खानसामा सर्व कर रहे
शैलानियों के बीच कुछ परियाँ
नेतरहाट के जलजीवन को कैमरों में कैद कर रहीं
तभी फेंके गए झूठन पर भूख से बिलबिलाते कुत्ते
इतने बेतरह टूट पड़े
जैसे अकाल मच गया हो नेतरहाट में
पंछियों का बेतरतीब झुंड भी झपट पड़ा !
बैल
‘तुम निरे बैल हो ‘
– कहते हुए
हमारी बुद्धि कितनी समझदार हो उठती हैं,
जब दो बैलों को लड़वाकर
हम उनका खेल देखते हैं
मजमे लगाते हैं
बोली लगाते हैं!
यह कहते हुए भूल जाते हैं
कोल्हू से बंधे बैल
बैलगाड़ी में नधे बैल
हलों को जोतते अपने कंधों पर
फालों को उठाए
खेतों को निगोड़ते बैल
पुट्ठों पर हमारी असह्य बोझों को उठाए
चल रहे हैं सदियों से
जिंदगी का भार ढोते
बैलवान की गारी-मार खाते हुए
अब हाइवे पर भी
जहाँ तेंदुए से भी तेज दौड़ती हैं गाड़ियां
सभ्यता के अनेक घाव और धब्बे हैं
बैलों की पीठ पर
उनके कातर दीदों से बहते लोर कभी देखा है ?
हजारों सालों से
स्वाभिभक्ति में कितने कुत्ते बने हुए हैं
हमारे बैल !
ये ‘हीरे-मोती’ उदय प्रकाश की कविता में एक बूंद से सिहरते हैं और
आकाश को अपने सिंग की नोक पर उठा लेते हैं तो
कभी किसी मक्खी के बैठने पर
उनके सींगों पर टिकी पूरी नगर सभ्यता ही काँपती है !
भूख-प्यास से बेदम हांफते
बैलों के मुँह के झाग में फंसी है
हमारी संस्कृति के चिन्ह
मोहनजोदड़ो से अब तक ।
गाँव की एक शाम
खेत के पीछे सूर्य ढल रहा है लाल
कामिन बुवाई से लौट आई है
जमींदार के आदमी के पास
रोज की खुराकी लेने
उसकी पीठ पर बंधा बच्चा
डांव-डांव कर रहा भूख से
पीछे मरद उसका लौट रहा है
दारू पीकर निठल्ला
गाय-भैंस चराकर
उसके महुवे की गंध में
पहाड़न के पसीने की गंध घुल गई है
यह शाम इतनी घबराई हुई
डूब रही है बेतरह रेंकते गधों के साथ
कि कवि हैरान है
कि यह शाम है कि कोई वहशत,
पसीने से छीलते दिन का !
जीवन
ढलता है जीवन यहाँ इसी तरह
पहाड़ की प्रतिच्छाया में
डूबता है जैसे
एक भरा-पूरा दिन
जैसे कंक होता एक बूढ़ा वृक्ष
खड़ा रहता है
प्रकृति के दुद्धर्ष संघर्ष के बीच
मौन
अपनी जीर्ण होती काया में
समेटे
अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का इतिहास
लकड़हारे
सिर पर लकड़ियों का गट्ठर
कमर कमान सी झुकी
उस बूढ़े लकड़हारे का रास्ता रोककर
उससे जीवन का रहस्य जानना चाहता हूँ –
न जाने अपने जीवन के कितने वसंत
देख चुका वह बूढ़ा आदमी
लकड़ियों का बोझा
धीरे से अपनी पीठ से उतारता है
फिर तनकर एकदम खड़ा हो जाता है
अपना पसीना पोछता है
मुझे देखकर थोड़ा मुसकुराता है
फिर सिर पर अपना बोझा लाद
पहले की ही तरह झुक जाता है
और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाता है
घनी आबादी वाली बस्ती में
पहाड़ से उतरती आड़ी-तिरछी ये पगडंडियाँ
नदी तक आते-आते न जाने कहाँ बिला जाती हैं
बलुई नदी पार कर रहे
मवेशियों के खुरों की आवाज़
पहाड़ी बालाओं के गीतों के स्वर
गड़ेरियों की बाँसुरी की धुन
घाट पर धोबिनों के कपड़े फटीचने की आवाजें
चाक पर घूमती मिटटी की चकरघिन्नी के सुर
घुमकुरिया में माँदर की थाप
महुवे और जंगली फूलों की गंध
पंछियों का शोर
जगल की सरसराहट
– ऐसा कुछ भी नहीं जा पाता नदी के उस पार
– घनी आबादी वाले हिस्से में
सिर्फ़ जाते हैं वहाँ
कटे हुए जंगल कटे हुए पहाड़
केंदू के पत्ते महुवे के फूल
जड़ी-बूटी देसी धान की बोरियाँ
और अपने गाँव-घर से कटे
काम की खोज में
पेट की आग लिए
पहाड़ पर रहने वाले लोग
जंगल के सौदागरों को घेरने की तैयारी
जंगल चुप्पी तोड़ रहा इस फागुन,
पलाश पर लाल फूल दहक रहे, देखो
आने वाले किसी
जर्द, तमतमाये मंजर का संकेत तो नहीं !
उठते चक्रवात में सारण्डा के जंगल के
पत्तों की तेज सरसराहट और
पंछियों का विकल शोर कोई विद्रोह-गीत तो नहीं
नदी घाट पर पहरा गाँव वालों का
पगडंडियाँ के ओस सूख गए आवाजाही से
रेत के भीतर जल खौल रहा…
पहाड़ी बस्तियों में रात-बेरात डुगडुगी बज रही
केंदु पत्ते महुवे के ढेर पर
तीर–तरकश का अभ्यास चल रहा
बिरसा का गीत गा रहे जंगलवासी
पहाड़ से इस बसन्त के निकलने के पहले ही
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परिचय : कविता-संग्रह कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012)
सहित कविताएं और आलेख साहित्य की मानक पत्रिकाओं व अंतर्जाल-पत्रिकाओं में प्रकाशित
संपर्क : सुशील कुमार, सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय, स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, राँची (झारखंड)-834004
मो. – 7004 353 450 और 0 9006740311
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