डॉ. श्रीरंग शाही की स्मृति में
एक तारा और टूटा
– रघुनाथ प्रसाद ‘विकल’
एक तारा और टूटा फिर। अनमने आकाश का
संदर्भ भूला मन।
भावना में रूग्ण
पंकिल सीप-से लोचन।
यक्ष का स्वर आज फूटा फिर। एक तारा और टूटा फिर।
थरथराते हाथ लूँ क्या?
स्वप्न या कंचन?
डगमगाते पाँव-
मरूस्थल ठीक या नंदन
इस द्विधा में कौन छूटा फिर।
एक तारा और टूटा फिर।
हिम नदी सा छा रहा
मन पर विपद का धन।
स्वर्ण मंडित स्वप्न
मिटते जा रहे क्षण क्षण।
हाय किसने आज लूटा फिर? एक तारा और टूटा फिर।
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रघुनाथ प्रसाद ‘विकल’
नौ, किदवई पुरी पटना-८००००१