विशिष्ट कवि : दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार की दो कविताएं

 

गांधी के जन्म दिन पर

मैं फिर जन्म लूंगा

फिर मैं

इसी तरह आऊंगा

उचटती निगाहों की भीड़ में

अभावों के बीच

लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊंगा

लंगड़ाकर चलते हुये पांवों को

कंधा दूंगा

गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को

बांहों में उठाऊंगा

 

इस समूह में

इन अनगिनत अनचीन्ही आवाजों में

कैसा दर्द है

कोई नहीं सुनता

पर इन आवाजों को

और इन कराहों को

दुनिया सुने मैं ये चाहूंगा

 

मेरी तो आदत है

रोशनी जहां भी हो

उसे खोज लाऊंगा

कासरता, चुप्पी या चीखें,

या हारे हुओं की खीज

जहां भी मिलेंगी

उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊंगा

जीवन में कई बार उकसाकर

मुझे अनुल्लघ्य सागरों में फेंका है

अगन-भट्ठियों में झोंका है,

मैंने वहां भी

ज्योति की मशाल प्राप्त करने के लिये यत्न किये

बचने के लिये नहीं

तो क्या इन चुटकी बंदूकों से डर जाऊंगा ?

तुम मुझको दोषी ठहराओ

मैँने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है

घर मैं गाऊंगा

चाहे इस प्रार्थना सभा में

तुम सब मुझ पर गोलियां चलाओ

मैं मर जाऊंगा

लेकिन कल फिर जनम लूंगा

कल फिर आऊंगा

 

इनसे मिलिये

पांवों से सिर तक जैसे एक जुनून

बेतरतीबी से बढ़े हुए नाखून

 

कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दागिल पांव

जैसे कोई एटम से उजड़ा गांव

 

टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बांस

पिंडलियां कि जैसे हिलती-डुलती कांस

 

कुछ ऐसे लगते हैँ घुटनों के जोड़

जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़

 

गट्टों-सी जंघाएं निष्प्राण मलीन

कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण

 

छाती के नाम महज हड्डी दस-बीस

जिस पर गिने-चुनेकर बाल खड़े इक्कीस

 

पड़े हों जैसे सूख गए अमरूद

चुकता करते-करते जीवन का सूद

 

बांहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल

अंगुलियां जैसे सूखी हुई पुआल

 

छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग

हर वक्त पसीने का बदबू का संग

 

पिचकी अमियों से गाल लटे से कान

आंखें जैसे तरकश के खट्टल बान

 

माथे पर चिंताओं का एक समूह

भौहांपर बैठी हरदम यम की रूह

 

तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल

विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल

 

बैठे तो फिर घंटों जाते हैँ बीत

सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

 

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार

इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार

 

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