विशिष्ट कवि :: राजेंद्र ओझा

राजेंद्र ओझा की चार कविताएं

लाचार

हर बार
जब वह उड़ने को होता
और सोचता कि
चलो
कुछ दाने चुग आए
उसके सामने
दाने फेंक दिए जाते।

उसे यह अच्छा लगा
फिर वह
केवल सोचता
उड़ता नहीं
उसके सामने दाने आ जाते।

फिर उसने देखा
बिना सोचे ही
उसके सामने
आ ही जाते हैं दाने।

उड़ना तो
पहले ही बंद हो चुका था
अब बंद हो चुका था
सोचना भी।

पके रोओं के बाद भी
ताकतवर बना रहता है
दाना फेंकने वाला हाथ।

थोड़े में ज्यादा देखना

मैं हताश ही नहीं
गुस्से में भी था
उसकी तगाड़ी में थीं
थोड़ी सी ही रेत,
गिट्टी भी
तगाड़ी भर नहीं उठाई उसने
कभी भी
ढ़ोता ही रहा हमेशा वह
गिनती भर की ईंटें
कम कर देता
होती अगर एक भी ज्यादा।

गुस्से और कई बार
चाय तक न पूछने के बाद भी
वे लगे रहे
ढोते और उठाते रहे
वैसे ही थोड़ा थोड़ा
पता ही नहीं चला
इसी थोड़े थोड़े से
कब बन गई दीवार
कब ढल गई छत
कब बन गया
एक पूरे का पूरा मकान।

मैं अब भी गुस्से में हूं
और हताश भी
कि मुझे गुस्सा क्यों आया
कि मैंने
क्यों नहीं सीखा
थोड़े में ज्यादा देखना।

कहीं न कहीं

सब कुछ बिखर चुका था
रौंदते चले गए लोग
बिखरे हुए जूतों को
बिखरे कम्बल
बिखरी शॉलों को।

ऐसा ही बहुत कुछ बिखरा पड़ा था
रौंदा हुआ
लोग केवल
अपने परिजनों को ढूंढ रहे थे
वे उस शर्ट को ढूंढ रहे थे
जो उसके पिता ने पहनी थी
या उस साड़ी को
जो पहनीं थीं
मां ने
या पत्नी ने
बहन ने या मौसी ने।

मैं
फिर धीरे धीरे कुछ और लोग
समेटते चले गए
हर बिखरी चीज़ को
जो बेतरतीब फैली थी
और किसी न किसी की थी।

हमने करीने से घड़ी किया
उन सभी चीजों को
जिसे घड़ी किया जा सकता था
जूतों को भी ढूंढ़ा
कि लगे एक जैसे
और फिर सभी को छोड़ आए
नेकी की दीवार के पास।

कोई
कभी किसी को देखेगा
पिता की शर्ट पहनें
तो किसी को
बहन का सलवार सूट दिखेगा
तो पत्नी की पसंदीदा साड़ी भी
कोई देख ही लेगा
किसी न किसी को पहने हुए।

खोए हुए लोग
इस तरह
कहीं न कहीं
बसे हुए भी होते हैं

थकी देह वाली औरत

थकी हुई कभी नहीं दिखतीं
थकी देह वाली औरत।

वो जंगल में महुआ बिनतीं है
उसके लिए रख छोड़े गए हैं
आसपास के चार पेड़
वह पांचवें ही नहीं
उसकी ही आंखें देख पातीं हैं
पत्तों के बीच छिपे महुओं को
वह
छठवें, सातवें तक चली जाती है।

कमर और
घमेले के बीच
कमजोर हो चुके रिश्ते को
वह जानती है
इसीलिए अब
घमेला उठाती नहीं
खींचतीं है
ऐसे भी
उसका घमेला
बहु के ही नहीं
बेटे के घमेले से भी बड़ा है।

थकी देह वाली औरत
हमेशा गुनगुनाती है
ये गुनगुनाना
एक चाबी है
न गुनगुनाना रुकता है
न चलना।

थकी देह वाली औरत
कभी थकतीं नहीं है
चाहे वह
जंगल में महुआ बीन रही हो
या फैली हो
सुबह मुख्य दरवाजे का
ताला खौलने से लेकर
रात सोने से पहले
गैस का नॉब बंद करने तक।

मॉं ही नहीं बच्चा भी

उसने सुन रक्खा था
कान बंद हो
तो गरमी ही नहीं
ठंड भी
बहुत कम लगती है।

यह जानते हुए भी कि
आधा शरीर ही ढंका है कपड़ों से
उसे विश्वास था कि बच्चा
ठंड के बावजूद
ठिठुरेगा नहीं।

गिरने के बाद भी
गोबर लिपे आंगन में
घुटने नहीं छिलेंगे
यह वह जानतीं थीं
फिर भी उसने
सम्हाल रखा था बच्चे को।

इस सम्हालने में
सम्हालना किसे कहते हैं
यह समझाना भी शामिल था
मॉं ही नहीं
बच्चा भी
हर वो भाषा जानता है
जो शब्दों से परे होती है।
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परिचय : राजेंद्र ओझा लंबे समय से कविताएं लिख रहे है. इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है़. ये करीब 35 वर्षों से रंगमंच से जुड़े रहे हैं.  राजेंद्र ओझा छत्तीसगढ़ विद्युत कंपनी से सेवानिवृत्त हैं
पता – पहाड़ी तालाब के सामने, बंजारी मंदिर के पास, वामन राव लाखे वार्ड -66, कुशालपुर, रायपुर, छत्तीसगढ़

मोबाइल नंबर – 9575467733, 8770391717

 

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