विशिष्ट कवि :: नरेश अग्रवाल

नरेश अग्रवाल की दस कवितायें

सहारा 

मां, पिता को एक ताबीज पहना दो

अपने हाथों से

इससे उनकी आयु सुरक्षित रहेगी

 

जब भी भय सताएगा

कोयले की खान में उतरते हुए

पत्थरों का खिसकना

दहशत भरेगा उनके पांवों में

यह ताबीज जैसे तुम्हारी याद

तुम्हारे हाथ सहारा देते हुए

उनकी रक्षा करते हुए

बचा ले जायेंगे

 

जब तक पिता हैं

घर हमारा बसा है

उनके कोयले से लथपथ

काले चेहरे में भी

सफेद रोटी ही नजर आती है

 

चूल्हा

झोपड़ी के एक कोने में मां सोयी है

दूसरे में पिता

तीसरे में बच्चे

चौथे में रखा हुआ है चूल्हा

बस इतनी सी ही जगह है यहां

 

सुबह होगी

एक-एक करके लोग उठते जाएंगे

जगह खाली होती जाएगी

खाना पकाने का प्रबंध होगा

 

सबसे पहले मां उठेगी

फिर पिता और अंत में बच्चे

चूल्हा कभी टस से मस नहीं होगा

उसे वहीं मुस्तैद रहना है

जलना है, बुझना है

 

जिस दिन वह जगह से हटा

समझो की झोपड़ी नहीं रही

रहने वाले बेदखल हुए तो

दूर से एक बड़ी इमारत दिखाई देगी!

 

शायद नहीं सोचा होगा

प्रकृति को कोई लज्जा नहीं कि

बिल्कुल छोटे-छोटे आवास में

मनुष्य को छोड़

बाकी प्राणियों को रखा

 

पक्षियों के लिए सिर्फ एक घोंसला

ततैयों को छाले जितना घर

दीमक किताब के भीतर

चीटियां कभी यहां, कभी वहां

असंख्य मछलियों को भर दिया

समुद्र में बिना किसी घर के

 

भले प्यार करने के लिए

सभी को एक जैसी जगह दी

उनके ह्रदय में

 

फूल अपनी डाल से हिल नहीं सकते

कांटे कभी चल नहीं सकते

सभी को अंधेरा दिया

लेकिन मनुष्यों को कृत्रिम रोशनी भी

 

इंसान को ही

अपना सबसे नजदीकी और प्यारा बनाया

शायद यह सोच कर कि

उसकी संरचना को समझेगा

उसके अनूठे सृजन पर दाद देगा

 

लेकिन यह नहीं सोचा

वह ईर्ष्यालु और विध्वंसकर्ता भी है!

 

सब कुछ बदल जाता है

सभी चकमा देते रहते हैं

एक दूसरे को

वेश बदल-बदल कर

 

दीवारें रंग बदल लेती है

पेड़ अपना स्वरूप

नदियां थोड़ा-थोड़ा सूखती हैं

एक दिन पूरी सूख कर

पहचान खो देती हैं

 

सब कुछ बदल जाता है

बादलों की तरह विशाल दिखने वाला पहाड़

अचानक लुप्त हो जाता है

भरी हुई जेब बाजार लूट लेता है

तने हुए कंधे जल्दी ही झुक जाते हैं

चांद देखते-देखते आधा हो जाता है

गर्मी ठंड में बदल जाती है

 

सभी कुछ तो हम बर्दाश्त करते हैं

साथ ही बर्दाश्त की सीमा भी बढ़ाते रहते हैं

 

पूरी तरह एक दिन पत्थर हो जाने के बाद

टूटते नहीं, टिके रहते हैं

अपने खड़े रहने के लिए

दूसरों को ठोकर देते रहते हैं

 

पहचान

मृत्यु के बाद उसकी देह सफेद हो गई थी

ऊपर से सफेद चादर

सफेद मालाओं से ढकाव

मित्रों और रिश्तेदारों के चेहरे भी सफेद

लगता है सफेद रंग

आजीवन प्रिय था मृतक को

लिबास भी सफेद रहे

घर का रंग भी सफेद रखा

कुत्ता तक सफेद

सफेद गाड़ी में चलते हुए

सफेद कबूतर जैसी पहचान बनाई

लेकिन हृदय को कहां रख पाया सफेद

जलने के बाद सारी सफेदी खत्म

एक-एक करके नजर आने लगा

उसका काला साम्राज्य

 

 मामूली

एक फेंका हुआ प्याला

मामूली हो सकता है

लेकिन द्रव्य से भरा नहीं

 

प्यार से भरा शरीर भी मामूली नहीं

स्वर्ग घटित होता रहता है वहां निरंतर

 

बंद आंखें भी मामूली नहीं

कुछ बनने का स्वप्न देखती रहती है

मामूली है धूल भी

आंखों में झोंक दिए जाने पर नहीं

 

पढ़ाई भी मामूली नहीं

अच्छी नौकरी उसका मानें बदल देती है

बार-बार दोहराई गई बात भी मामूली नहीं

क्या पता कल यह कानून बन जाए

 

एक कोड़े़े की चोट हो सकती है

मारने वाले के लिए मामूली

नहीं उसके लिए मामूली

जो इसका बदला लेगा

हजार कोड़े मारकर

 

मैं हर मामूली में

बूंद का आसमान में

शामिल हो जाना देखता हूं!

 

बिछुड़ने का दुख

प्रिय मित्र

मेरी कठपुतली की भेंट स्वीकार करो

बहुत सुंदर लेकिन अकेली है यह

नृत्य नहीं कर सकेगी

इसे लटकाना भी मत धागों से

सजा कर रखना

 

काठ की अलमारी में

काठ के साथ मिलकर

उसकी मित्र हो जाएगी

कभी-कभी पेड़ की तरह दिखेगी

नन्ही डालियों की तरह

हाथ-पांव हिलाने-डुलाने की कोशिश करती हुई

 

अभी भी मौजूद इसमें पेड़ से जुड़ने की चाह

यह उदासी उसकी आंखों में दिखती है

 

यह दुख पेड़ से बिछुड़ने

डाल से अलग कर दिए जाने का है

इसमें सारे विस्थापित जनों का

दुख भी शामिल!

 

लोहार

लोहा गला और पिघला

पीटा गया उसे बार-बार

हर बार दिया कोई नया आकार

 

उसका शरीर भी

गलता और पिटता रहा

इसके साथ-साथ

हो न पाया कभी मूल्यवान

 

उम्र के आखिरी पड़ाव में

अब भी मामूली सी आमदानी

जबकि उसका बनाया तवा

सेंक रहा रोटी हर घर में

 

उसकी रोटी सिंकती

केवल इस देह पर

 

तनाव ही तनाव

यह पुल बहुत पुराना है

इसके सहारे मेरे पूर्वज आए

शरणार्थी और चोर उचक्के भी

सभी को शरण देता रहा

 

लकड़ी का है छोटा सा

मरम्मत होती रही

इसलिए कभी टूटा नहीं

अभी भी खड़ा नये की तरह

 

लेकिन अब द्वार लगा दिये गये

विभाजन हो गया हर देश का

वर्जित है एक छोर से दूसरे छोर में आना

पासपोर्ट दिखाओ, वीजा दिखाओ

नाम-पता पूछने के बाद

कुछ ही दिन रहने की इजाजत

फिर वापस लौट जाओ

 

साथ ही सभी को जोड़ दिया गया

अपने देश से, भगवान से, राजनीति से

दाढ़ी वाला अलग, टीका वाला अलग

क्राॅस लटकाने वाला अलग

 

जहां इन पुलों पर

कभी प्रेम उपजता था भाईचारे का

अब बस तनाव ही तनाव

सैनिक ही सैनिक

कानून ही कानून

 

आदमी भयभीत होने लगता है

इसके पास पहुंचते ही!

 

छूने का अहसास

जब भी मैंने

उसे बस में जाते देखा

या तेजी से रेलगाड़ी में

या चलते हुए पगडंडियों पर भी

हर बार उसका पीछा किया

एक पागल प्रेमी की तरह

 

लेकिन असफल रहा

उसे यह बताने में

कि मेरा हाथ जब भी बढ़ा

यह उसी की तरफ था

 

यह हमेशा काॅंपता रहा

तड़पता रहा उसके स्पर्श के लिए

बारिश इस पर गिरी

ओस इस पर गिरी

सूखे पत्तों ने भी इसे झकझोरा

 

भले इसने केवल

गिरना और सहना ही महसूस किया

कभी पा भी न सका

उसके कोमल हाथों का स्पर्श

लेकिन इसे हमेशा बढ़ाए रखा

कभी पीछे नहीं खींचा

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परिचय – नरेश अग्रवाल की साहित्य और शिक्षा संबंधी 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं. पिछले 10 वर्षों से लगातार ‘मरुधर के स्वर’ पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं, जो आर्ट पेपर पर छपती है. कई संस्थाओं द्वारा इन्हें सम्मानित किया जा चुका है.

सम्पर्क – नरेश अग्रवाल, हाउस नंबर 35, रोड नंबर 2, सोनारी गुरुद्वारा के पास, कागलनगर, सोनारी

जमशेदपुर – 831011

मो. – 9334825981, 7979843694

 

 

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