विशिष्ट गीतकार : रंजन कुमार झा

(1)
पथिक बनो दीये खुद पथ के
वर्ना हरसू अंधकार है

वज्र इरादों के शोलों सँग
दीवाली हर निशा मनाओ
पथ दुर्गम में पड़ी शिलाएँ
तोड़ो-फेको, दूर हटाओ
मांग वक्त की भांप चला जो
विजय रश्मियों पर सवार है

चट्टानी -फौलादी ताकत
दृढ़ संकल्पित निमिष न हिलना
सीख लिया जिसने जीवन के
कंटक में पुष्पों-सा खिलना
मंजिल केवल उसके पग का
ही करती नित इंतजार है

नभ के तारे सभी तुम्हारे
होंगे आज न कल, है निश्चित
निज पाँवों पर खड़े शूल की
आघातों से मत हो विचलित
भरत भूमि की इस माटी का
‘अप्प दीप भव’ संस्कार है

(2)
गम हमारे-तुम्हारे नहीं थे अलग
हम इधर रह गए तुम उधर रह गए

एक झोंका हवा का उड़ा ले गया
गंध उपवन की हमसे चुरा ले गया
फूल नाज़ुक थे, हम रह गए देखते
कुछ इधर झर गए कुछ उधर झर गए

डूबती आस को न किनारा मिला
चुक रही श्वास को न सहारा मिला
यों मुहब्बत की दरिया में डूबे हुए
हम इधर बह गए तुम उधर बह गए

हम न भर ही सके वक़्त के घाव को
व्यक्त कर न सके पीर के भाव को
देवताओं के दर सर पटककर व्यथा
हम इधर कह गए तुम उधर कह गए

थी रिवाजों की मजबूत जंजीर वह
खोल पाए कभी हम न उसकी गिरह
दर्द-संताप ही झेलना था लिखा
हम इधर सह गए तुम उधर सह गए

(3)
खोया-खोया-सा लगता है
कल का मेरा गाँव

गाँव वही था, जिसमें जीवन
होता था खुशहाल
मिलती थी जी भर खाने को
सब्जी- रोटी- दाल
अपने हित में किया किसी ने
जहाँ कभी न काँव

जहाँ परिन्दे भी करते थे
राम नाम का जाप
वहाँ भजन भी लगता सबको
केवल शोर – प्रलाप
रही न तुलसी घर-आँगन में
खोई पीपल-छाँव

जहाँ ‘अतिथि देवो भव’ वाला
संस्कार-व्यवहार
वहाँ गली हर, घर-घर में अब
मात-पिता ही भार
भाई ही भाई पर नित दिन
खेला करते दाँव

(4)
जिनके घर तम बरस रहा है
कभी न आ पाती लौ मद्धम
उनसे जाकर पूछे कोई
दीवाली कैसी होती है

जिन हाथों को काम न मिलता
भोजन दोनों शाम न मिलता
दो गज भू न जिन्हें मयस्सर
दीप कहाँ बारें वो जाकर ?
कुदरत जिन पर सितम ढा रही
नहीं वेदना कभी हुई कम
उनसे जाकर पूछे कोई
कंगाली कैसी होती है

जहाँ सदी से तम के डेरे
सूरज बैठा है मुँह फेरे
लाचारी -बेजारी है नित
डग भर आगे दिखे न ज्योतित
जख्म पसऱता ही जाता है
दूर-दूर तक दिखे न मरहम
उनसे जाकर पूछे कोई
बदहाली कैसी होती है

जहाँ स्याह निशि, घुप्प अंधेरा
रोज चिढ़ाता जिन्हें सवेरा
जीवन ने मुश्किल में डाला
कब का ही पिट चुका दिवाला
जली, दीप के बदले जिनकी
इच्छाएँ हो-होकर बेदम
उनसे जाकर पूछे कोई
खुशहाली कैसी होती है

(5)
तुम्हें देख मेरे गीतों ने अपना है शृंगार किया

तुम आईं तो मन-आँगन की महक उठी यह फुलवारी
गेहूँ-सरसों के खेतों-सी झूम रही मन की क्यारी
ऋतु वसंत आया जीवन में, खुशियों ने अभिसार किया

शब्दों को हैं प्राण मिल गए, मिली काव्य को है काया
कलम हो रहे मतवाले, छंदों ने गान मधुर गाया
मुग्ध नयन से कविताओं ने प्रिय! को चूमा,प्यार किया

तुम आईं जीने की आशा लिए हुए ज्यों आँचल में
जैसे काले मेघ बरसने आन पड़े हों मरुथल में
खुशियों से भींगी आँखों ने गालों को मझधार किया
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परिचय : गीतकार बेगूसराय के फजिलपुर उत्क्रमित मध्य विद्यालय के प्रधानाध्यापक हैं. इनके दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
मो. 9504809769
ई.मेल- ranjan.kumar.jha75@gmail.com

 

 

 

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