विशिष्ट गीतकार : वशिष्ठ अनूप

साँस रुक सी गयी
साँस रुक सी गयी, थम गयीं धड़कनें
तुमको देखा तो दिल मुस्कराने लगा।
ये निगाहें ठगी -सी रहीं देखती
इक अजब -सा नशा मुझपे छाने लगा!!

क्या पता था कि मजबूत चट्टान इक
चन्द रिमझिम फुहारों से गल जायेगी
एक फौलाद फूलों से कट जायेगा
इक शिला चाँदनी में पिघल जायेगी
पर वही हो गया जो न सोचा कभी
धैर्य- संयम मेरा डगमगाने लगा।
सांस रुक सी गयी…

कुछ बताने का अरमान मन में में लिये
थरथराए अधर पर न कुछ कह सके
मूकता देर तक बात करती रही
नैन बोले बिना चुप कहाँ रह सके।
पूनमी रात में चाँद को देखकर
मन चकोरों -सा था चहचहाने लगा।
साँस रुक सी गयी…

जैसे दर्पण के आगे खड़ी सुंदरी
रीझती खुद पे खुद से लजाती हई
जैसे जिद्दी भ्रमर से विकल सी कली
मुँह छिपाती मग़र मुस्कराती हुयी
यूं ही जब रूपसीने निहारा मुझे
नेह का एक दिया टिमटिमाने लगा
सांस रुक सी गयी़…

जैसे मन्दिर की बजती हुई घण्टियाँ
जैसे झरना कोई गीत गाता हुआ
जैसे कोयल की रस-गन्ध भीगी कुहुक
गाँव के बाग़ में जैसे बोले सुआ
सारिका सी मधुर एक आवाज ने
कुछ कहा तो ये मन गुनगुनाने लगा।
साँस रुक सी गयी!!!!!
इसलिए

इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें
जि़न्दगी आँसुओं में नहाई न हो,
शाम सहमी न हो, रात हो ना डरी
भोर की आँख फिर डबडबाई न हो। इसलिए…

सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे
रोशनी रोशनाई में डूबी न हो,
यूँ न ईमान फुटपाथ पर हो खड़ा
हर समय आत्मा सबकी ऊबी न हो;
आसमाँ में टँगी हों न खुशहालियाँ
कैद महलों में सबकी कमाई न हो। इसलिए…

कोई अपनी खुशी के लिए ग़ैर की
रोटियाँ छीन ले, हम नहीं चाहते,
छींटकर थोड़ा चारा कोई उम्र की
हर खुशी बीन ले, हम नहीं चाहते;
हो किसी के लिए मखमली बिस्तरा
और किसी के लिए इक चटाई न हो। इसलिए…

अब तमन्नाएँ फिर ना करें कुदकुशी
ख़्वाब पर ख़ौफ की चौकसी ना रहे,
श्रम के पाँवों में हों ना पड़ी बेडि़याँ
शक्ति की पीठ अब ज़्यादती ना सहे,
दम न तोड़े कहीं भूख से बचपना
रोटियों के लिए फिर लड़ाई न हो। इसलिए…

जिस्म से अब न लपटें उठें आग की
फिर कहीं भी न कोई सुहागन जले,
न्याय पैसे के बदले न बिकता रहे
क़ातिलों का मनोबल न फूले–फले;
क़त्ल सपने न होते रहें इस तरह
अर्थियों में दुल्हन की विदाई न हो। इसलिए…

अथाह सागर उबल रहा है

पयाम भेजा है गोलियों का
कहा जो तुमने वही करेंगे,
लड़े थे पहले फिरंगियों से
तुम्हारे जुल्मों से भी लड़ेंगे।

था हमने समझा गुलामियों का
गया ज़माना, मगर ये भ्रम था
ज़मीनी सच्चाइयाँ वही थीं
यहाँ का मौसम अभी गरम था
सजा के फिर मुफलिसों की सेना
तुम्हारे दुर्गों पे हम चढेंगे।

ये बुद्ध ईसा कबीर गाँधी
समय–समय पर सभी सही हैं
ज़बान इनकी अलग–अलग है
विचार लेकिन ग़लत नहीं हैं
मगर अभी तो सुभाष, शेखर
भगत का नारा लिये बढ़ेंगे।

प्रलय की लहरें लपक रही हैं
विशाल पर्वत पिघल रहा है,
है धैर्य धरती का डगमगाया
अथाह सागर उबल रहा है
वे चाहे अपने हों या पराये
सितम किसी का नहीं सहेंगे

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