अब किसे क्या प्यार करना
कल मेरा मुख पोंछती थी, ले दुपट्टे का किनारा
आज बेचा आईने के हाथ कल का सच हमारा
क्या भला तुमसे शिकायत, हाँ ये छोटा-सा निवेदन
उस दुपट्टे की सिरा से आईने को पोंछ लेना
फिर कभी सिंगार करना
तुमसे शीतल थी कभी मेरी दुपहरी गर्मियों की
टूटती कड़ियाँ न थी तब भावनागत उर्मियों की
शान्त दिल की झील को कंकड़ की अब न रही प्रतीक्षा
जो चुना था मेरी खातिर, फेंक वह कंकड़ किसी पर
फिर कोई मनुहार करना
हो गई मुझसे विलग मुझे देवता का मान देकर
तुमने अच्छा ही किया यह वेदना अनुदान देकर
मैं मनुज था हूँ रहूँगा और भोगूँगा विरह को
नियति की दृष्टि से बचने गाल पर काजल लगाना
फिर कहीं अभिसार करना
(2)
अधरों ने अधरों पर, खत लिखा है प्यास को
तन के देवदास को! मन के देवदास को
अटक गयी साँस, आस लटक गयी बाँस पर
मधुवन के आँगन से खुशी गयी खाँस कर
नागफणि छेड़ गयी बूढ़े अमलतास को
पीले अमलतास को
चहक गया चिड़ा, राह बहक गयी मोरनी
‘पारो’ कंजूस हुई, ‘चंद्रमुखी’ चोरनी
कौन भला रोके अब उखड़े उच्छवास को
बिखरे विश्वास को
पुलक गए पलक, सुधा छलक गयी देह की
तन मन क्यों सुने भला बात अब विदेह की
रट रही है रोज देह संधि और समास को
गरम-गरम साँस को
सर्द पड़ी देह, नेह माँग रही रेत से
पूछ रही हाल-चाल, जुते हुए खेत से
चख गया है कामदेव देह की मिठास को
तरलमय सुवास को