ईश्वर करुण के गीत
1
कुछ बहुत दूर का कुछ बहुत पास का
तुमसे रिश्ता हमारा है विश्वास का ,
देख लो तुम बढाकर जरा दूरियाँ ,चैन लेने न देंगीं तुम्हें चूड़ियाँ
आईना डाँट देगा पिता की तरह ,जब सुनाओगी तुम झूठी मजबूरियाँ
कैसे आँखें चुराओगी कचनार से
कैसे ताने सहोगी अमलतास का
तैरते होंगे रिश्ते हवा पर भले , अपना रिश्ता है मटके में पानी भरा
है ये सम्भव समय कान तेरे भरे , दुष्ट का दौर है वक्त है मसखरा
मैं बनाता हूँ घर एक बया की तरह
मैं बनाता नहीं हूँ -महल तास का
बिन खिलाये मुझे थोड़ा खा लो सही ,भूख को मायके से बुलालो सही
होंगे दिन बेज़ुबाँ रात भी अनकही , बिन मेरे जी के भी आजमालो सही
तुमको गौरव है फूलों की बेटी हो तुम
मैं भी बेटा सजीला हूँ मधुमास का
2
पतझर का षडयंत्र फल गया ! हिया जुड़ाया काँटों का
मन के ऊपर राज हो गया , निर्वासित सन्नाटों का !
भँवरे तो प्रतिद्वंद्वी थे ही ,
फूल भी बैरी बन बैठे !
तान भृकुटियाँ तितली भागी
कोयल – पपिहे तन बैठे !
नौकाएँ विद्रोह कर गयीं , साथ दे दिया घाटों का !
मन के ऊपर राज हो गया, निर्वासित सन्नाटों का !
जाने क्या कह दिया तुम्हें,
उस दिन मैंने कचनार तले!
कोस कोस उस एक घड़ी को
कितने दिन और रात ढले !
अब तक खुला नहीं ताला क्यों तेरे ह्रदय कपाटों का !
मन के ऊपर राज हो गया, निर्वासित सन्नाटों का !
मान भी लो और छोड़ भी दो
तुम ओढ़े हुए परायापन !
अच्छा नहीं कि जेठ के हाथों
बेचें हम अपना सावन !
मिले प्रीत तो खिल जाता है ,तन मन मूर्ख चपाटों का !
मन के ऊपर राज हो गया , निर्वासित सन्नाटों का !
3
जब निराशा के क्षण तुमको घायल करें आड़ी तिरछी लकीरों को तुम चूम लो
मित्र के आचरण जब भी घायल करें शत्रु के तीखे तीरों को तुम चूम लो
जब स्वयं का स्वयं से ही हो सामना ,
पूर्ण हो जब न तेरी मनोकामना ,
शब्द करने लगें अर्था कि याचना
मन की परतो में पहुंचे न जब प्रार्थना
धूर्त वातावरण जब भी घायल करें ,अक्षरों के फकीरों को तुम चूम लो
मित्र के आचरण जब भी घायल करे शत्रु के तीखे तीरों को तुम चूम लो
झूठ आकर स्वयं सच पढ़ाने लगे ,
ज्योति ताम का स्वयं मन बढाने लगे,
खोता सिक्का मुकुट में गढ़ाने लगे ,
जब गुरु शिष्य को धन चढाने लगे
स्वार्थ का व्याकरण जब भी घायल करे ,भूखे नंगे फकीरों को तुम चूम लो
मित्र के आचरण जब भी घायल करे शत्रु के तीखे तीरों को तुम चूम लो
भाई भी भाई को जब बधाई न दे ,
खुद करोंड़ो रखे एक पाई न दे
जब कलम को तेरे रोशनाई न दे
दूर तक जब कहीं कुछ दिखाई न दे
चलते चलते चरण जब भी घायल करे ,साथ के राहगीरों को तुम चूम लो
मित्र के आचरण जब भी घायल करे ,शत्रु के तीखे तीरों को तुम चूम लो।
4
अपना गुस्सा मुझे सारा दे दो प्रिये ! मांगता हूँ यही तुम से मैं बावला !
तुम निखर जाओगी राधिका की तरह ,मैं भी बन जाउंगा कृष्ण-सा सांवला !
दिन हों बैसाख के दोपहर की घड़ी ,
पग में छाले पड़ें- धूप का दोष क्या !
दिन जवानी के हों ,हसरतें हों बड़ी ,
मग में टेढ़ा चले- रूप का दोष क्या !
बन के टेसू मेरी जिंदगी में खिलो , तेरी खातिर बनूँ मैं हरा आंवला !
तुम निखर जाओगी राधिका की तरह ,मैं भी बन जाउंगा कृष्ण-सा सांवला !
चार दिन का गणित जिसने हल कर लिया,
लोग कहते हैं उसको सफल आदमी ,
चार आँखें मिलीं और मन पढ़ लिया ,
उसके जीवन में रहती नहीं कुछ कमी.
मानकर सत्य यह आओ मिल लें गले ,सोच लो फिर से तुम ‘ दिल दा है मामला !
तुम निखर जाओगी राधिका की तरह , मैं भी बन जाऊँगा कृष्ण-सा सांवला।
मान दो तुम मुझे चाहे अपमान दो ,
शाप दो या भले कोई वरदान दो ,
चाँद के पर तक साथ मिलकर चलो ,
मेरी सांसों को तुम एक अभियान दो।
मैं भी खो जाउंगा तुम भी खो जाओगी ,जिस तरह खो गयी कल्पना चावला !
तुम निखर जाओगी राधिका की तरह , मैं भी बन जाउंगा कृष्ण सा सांवला!
[13/01, 10:37 pm] Rahul Shiway 2: हम नदियों के हत्यारे हैं , बोल भगीरथ क्या कर लेगा !
सरस्वती को मारा हमने , यमुना को मारेंगे निश्चित ,
गंगा कुछ दिन ख़ैर मना ले ,नदियाँ कई अभी हैं चिह्नित,
कावेरी की मौत देखकर ,आँखों से स्याही टपकेगा !
हम नदियों के हत्यारे हैं,बोल भगीरथ क्या कर लेगा !
कुछ को मारा नहीं , नर्क की नाली बना रखा है ,
क्या बिगाड़ लेगा तू मेरा ,उनका अगर सखा है ,
शंख फूँकता रह जाएगा ,तुम्हें दिखा देंगे हम ठेंगा !
हम नदियों के हत्यारे हैं बोल भगीरथ क्या कर लेगा !
एक एक कर औ गिन गिन कर, सारी नदियों को मारेंगे ,
तूने अपने पूर्वज तारे , हम दानव कुल को तारेंगे ,
मौत मिलेगी जैसी चाहो ,पीने को पानी न मिलेगा !
हम नदियों के हत्यारे हैं ,बोल भगीरथ क्या कर लेगा !
5
अधरों ने अधरों पर खत लिखा है प्यास को
तन के देवदास को! मन के देवदास को!
अँटक गयी साँस, आस लटक गयी बाँस पर
मधुवन के आँगन से खुशी गयी खाँस कर
नागफणि छेड़ गयी बूढ़े अमलतास को !
पीले अमलतास को!
चहक गया चिड़ा, राह बहक गयी मोरनी
“पारो” कंजूस हुई, “चंद्रमुखी” चोरनी
कौन भला रोके अब उखड़े उच्छवास को!
बिखरे विश्वास को!
पुलक गए पलक, सुधा छलक गयी देह की
तन मन क्यों सुने भला बात अब विदेह की
रट रही है रोज देह संधि और समास को!
गरम गरम साँस को!
सर्द पड़ी देह, नेह माँग रही रेत से
पूछ रही हाल- चाल, जुते हुए खेत से
चख गया है कामदेव देह की मिठास को!
तरलमय सुवास को!
वटवृक्ष जीवन का घिर गया है प्रेत से
मुड़ने की कला हमने सीख ली है बेंत से
लिखें फिर से शरतचंद्र नये उपन्यास को!
मधुमय इतिहास को
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परिचय : ईश्वर करुण वरीय पत्रकार हैं, लेकिन लेखन के क्षेत्र में भी इन्होंने अपनी पहचान बनाई है. इनके कई गीत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.
Phone – +91 94449 54385, +91 77089 38185
E-mail – ishwarkarunchennai@gmail.com
बहुत बहुत आभार